"Surdas Ki Jhompdi" is the most important chapter in Class 12 Hindi Antral Bhag 2 Bhag 2 textbook because it takes the student into the world of pathos created by Surdas, one of the great saint-poets of Hindi literature. While dealing with Class 12 Hindi Antral Chapter 18, here comes the discussion over life and philosophy of Surdas. The chapter relates to devotion and humility. The solutions for NCERT Class 12 Hindi Antral Bhag 2 Chapter 18: Surdas Ki Jhompdi will let the students do an in-depth analysis of the text and shall help them to understand the innermost meaning of the poetic expression used by Surdas. The solution will help students trace the development of the plot, events and themes and thereby get a more profound grasp of what Surdas thinks about the material and spiritual world.
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‘चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता?’ के आधार पर सूरदास की मनःस्थिति का वर्णन कीजिए।
यद्यपि यह कथन नायकराम का है पर इस कथन से सूरदास की मन:स्थित की झलक मिल जाती है। जगधर ने सूरदास से पूछा था-सूरे, क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था? इसका जवाब नायकराम ने दियां – ‘चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।’ सूरदास के दुश्मन भैरों ने सूरदास की झोंपड़ी में आग लगाकर अपना कलेजा ठंडा कर लिया था। उसकी पत्ी सुभागी उससे रूठकर सूरदास की झोंपड़ी में चली आई थी। तभी से भैरों सूरदास से बदला लेने की ताक में था। उसने झोपड़ी में आग लगाकर अपने मन को तसल्ली देने का काम किया था। सूरदास इस समय बहुत व्यथित था। उसकी मन:स्थिति बड़ी विचित्र थी। उसने पाँच सौसे अधिक रुपए जमा करके एक पोटली में रखकर इसी झोंपड़ी में छिपा रखे थे। वह इन रुपयों से अपने मन में सोची कई योजनाएँ पूरी करना चाहता था। आग लगने के कारण उसे अपनी सभी योजनाओं पर पानी फिरता नजर आया। वह अपनी जमा-पूँजी की बात न किसी से कह सकता था और न स्वीकार कर सकता था। उसे झोंपड़ी के जल जाने का इतना दुःख न था जितना उस पोटली का जिसमें उम्र भर की कमाई थी।
भैरों ने सूरदास की झोंपड़ी क्यों जलाई ?
भैरों की पत्नी सुभागी भैरों से लड़कर सूरदास की झोंपड़ी में चली आई थी। भैरों ताड़ी पीकर सुभागी को मारता-पीटता था। उसकी माँ उन दोनों में झगड़ा करवाती थी। भैरों को सुभागी का सूरदास की झोंपड़ी में आकर रहना बहुत बुरा लगा। उसने सूरदास को सबक सिखाने का निश्चय किया और एक रात उसने चुपके से दियासलाई लगा दी। वह अपनी करतूत को जगधर के सामने स्वीकार भी कर लेता है- ‘कुछ हो, दिल की आग तो ठंडी हो गई।’ अर्थात् भैरों बदले की आग में जल रहा था। सूरदास की झोंपड़ी को आग लगाकर उसके अशांत मन को कुछ चैन मिला। वह झोंपड़ी में से सूरदास की जमा-पूँजी वाली थैली भी उड़ा लाया और इसे उसने सुभागी को बहका ले जाने का जुर्माना बताया। वह सूरदास को रोते हुए देखना चाहता था। उसने जगधर के सामने कहा भी – ‘जब तक उसे रोते न देखूँगा, दिल का काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता।’
यह फूस की राख नहीं, उसकी अभिलाषाओं की राख थी’ संदर्भ सहित विवेचन कीजिए।
अथवा
सूरदास की झोपड़ी में भैरों ने आग लगा दी थी। झोपड़ी जलकर राख हो गई थी। झोपड़ी का फूस राख में परिवर्तित हो चुका था। सूरदास को झोपड़ी के जल जाने का उतना दु:ख न था जितना अपनी सारी जमा-पूँजी के नष्ट हो जाने का था। सूरदास फूस की राख में से अपनी उस पोटली को ढूँढ रहा था जिसमें उसके जीवन भर की जमा पूँजी (लगभग पाँच सौ रुपये) एकत्रित थी। उसने सारी राख को खंगाल डाला पर वह पोटली हाथ न आई। इसी प्रयास में उसका पैर सीढ़ी से फिसल गया और वह अथाह गहराई में जा पड़ा। वह राख पर बैठकर रोने लगा।
वह राख मानो उसकी अभिलाषाओं की राख थी अर्थात् उसके मन की सारी इच्छाएँ नष्ट होकर रह गईः। सूरदास ने इस संचित पूँजी से कई अभिलाषाओं की पूर्ति करने की बात मेन में सोच रखी थी। उसने इन रुपयों से पितरों को पिंडा देने का इादा किया था। उसकी यह भी अभिलाषा थी कि उसके पालित मिठुआ की कहीं सगाई ठहर जाए तो वह उसका ब्याह कर घर में बहू ले आए ताकि उसे बनी-बनाई रोटी खाने को मिल सके। वह एक कुआँ भी बनवाना चाहता था। वह ये सारे काम चुपचाप इस ढंग से करना चाहता था कि लोगों को आश्चर्य हो कि उसके पास इतने रुपए कहाँ से आए। राख में थैली के न मिलने पर उसकी अभिलाषाओं का अंत होता नजर आया। उसे लगा कि वह अपनी अभिलाषाओं की राख पर बैठा हुआ है।
जगधर के मन में किस तरह का ईष्य्या भाव जगा और क्यों?
सूरदास की झोंपड़ी में आग लगने के अवसर पर जगधर ने मौके पर आकर सूरदास के साथ सहानुभूति प्रकट की। उसने सूरदास, नायकराम, ठाकुरदीन, बजरंगी आदि सभी को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि इस आग के लगाने में उसका हाथ कतई नहीं है। भैरों की बातों से उसे यह विश्वास हो गया कि यह आग भैरों ने ही लगाई है। उसने चालाकी से भैरों से यह कबूल करवा लिया कि आग उसी ने लगाई है। जब भैरों ने उसे सूरदास की झोंपड़ी से उड़ाई वह थैली दिखाई जिसमें पाँच सौ से ज्यादा रुपए थे, तब जगधर के मन में ईर्ष्या का भाव जाग गया। उसे यह बात सहन नहीं हुई कि भैरों के हाथ इतने रुपए लग जाएँ। यदि भैरों उसे इसके आधे रुपए दे देता तो उसे तसल्ली हो जाती जगधर का मन आज खेंचा लगाकर गलियों में चक्कर लगाने न लगा।
उसकी छाती पर ईर्ष्या का साँप लोट रहा था-‘भैरों कं दम-के-दम में इतने रुपए मिल गए, अब यह मौज उड़ाएगा तकदीर इस तरह खुलती है। यहाँ कभी पड़ा हुआ पैसा भी = मिला। पाप-पुण्य की कोई बात नहीं। मैं ही कौन दिन भर पुन्न किया करता हूँ? दमड़ी छदाम कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ। बाट खोटे रखता हूँ तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। …. अब भैरों दो-तीन दुकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाता, तो जिंदगानी सफल हो जाती।’ यह सब सोचकर जगधर के मन में ईर्ष्या का अंकुर जम गया।
सूरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त क्यों रखना चाहता था?
अथवा
‘सूरदास की झोंपड़ी’ कहानी में सूरदास अपनी आर्थिक हानि जगधर को क्यों नहीं बताना चाहता थ?
सूरदास जगधर को अपनी जमा-पूँजी के बारे में नहीं बताना चाहता था। वह जान-बूझकर रुपयों की पोटली की बात को छिपा गया, जबकि जगधर को भैंरों से पता चल गया था कि उसने सूरदास की झोंपड़ी से जो थैली (पोटली) उड़ाई है उसमें पाँच सौ से अधिक रुपए हैं। जगधर ने सूरदास से कुरेद-कुरेद कर थैली के बारे में पूछा भी, पर सूरदास इससे साफ इंकार कर गया- “वह (भैरों) तुमसे हँसी करता होगा। साढ़े पाँच रुपए तो कभी जुड़े नहीं, साढ़े पाँच सौ कहाँ से आते ?” इसका कारण यह था कि सूरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि की बात को गुप्त रखना चाहता था। वह जानता था कि एक अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धन का होना। भिखारियों के लिए धन-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। अतः वह कहता है-” मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता ?”
‘सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।’ -इस कथन के संदर्भ में सूरदास की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
जब सूरदास ने घीसू द्वारा मिठुआ को चिढ़ाते हुए यह कहते सुना-‘खेल में रोते हो।’ तब सूरदास की मनोदशा में एकाएक परिवर्तन आ गया।
इससे पहले सूरदास अत्यंत दुःखी था। सूरदास कहाँ तो नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा था, कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे ऐसा मालूम हुआ, किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया हो। वाह! मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है। लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैं, रोने वाले को चिढ़ाते हैं और मै खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी-पर-बाजी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, धक्के-पर धक्के सहते हैं पर मैदान में डटे रहते हैं, उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छीटे भी नहीं आते, न किसी से जलते हैं न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।
सूरदास उठ खड़ा हुआ, और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।
‘तो हम सौ लाख बार बनाएँगे।’-इस कथन के संदर्भ में सूरदास के चरित्र का विवेचन कीजिए।
इस कथन के आधार पर सूरदास के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरती हैं :
कर्मशील व्यक्ति : सूरदासं एक कर्मशील व्यक्तित्व का स्वामी है। उसमें अपने कर्म के आधार पर विपत्तियों का सामना करने का साहस है।
हार न मानने वाला : सूरदास परिस्थिति से जुझने वाला है। वह एक बार झोंपड़ी के नष्ट हो जाने पर तब तक पुनः बनाने का संकल्प करता है जब तक नष्ट करने वाला थक न जाए।
सहनशील : सूरदास सहनशील व्यक्ति है। झोपड़ी जलने की घटना में उसका सब कुछ जलकर नष्ट हो जाता है, पर वह सब कुछ धर्यपूर्वक सह जाता है।
संकल्प का धनी : सूरदास अपने संकल्प का धनी है।
आशावान : सूरदास भविष्य के प्रति आशावान बना रहता है।
1. इस पाठ का नाद्य रूपांतर कर उसकी प्रस्तुति कीजिए।
2. प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का संक्षिप्त पढ़िए।
ये काम विद्यार्थी स्वयं करेंगे। विद्यार्थी ‘रंगभूमि’ का संक्षिप्त संस्करण पढ़े।
सुभागी के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
सुभागी ‘रंगभूमि’ उपन्यास की गौण स्त्री पात्र है, पर उसका चरित्र अन्य गौण पात्रों में सर्वाधिक उभरकर सामने आता हैं। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. उपेक्षित एवं तिरस्कृतः सुभागी भैरों पासी की पत्नी है। वह पांडेपुर गाँव की एक नारी है। उसके पति की ताड़ी की दुकान है। वह खुद भी ताड़ी पीता है और नशे में चूर होकर पत्नी सुभागी को पीटकर अपना पुरुषार्थ दिखाता है। सुभागी की सास भी कम नहीं है। वह उसकी चाहे जितनी सेवा करे, हमेशा तुनकी ही रहती है। वह भैरों को सिखाकर दिन में एक बार सुभागी को पिटवाकर ही दम लेती है। सुभागी पति और सास दोनों से त्रस्त है, दोनों से उपेक्षित और तिरस्कृत। वह पति और सास से ऐसे ही काँपती है, जैसे कसाई से गाय। पति और सास को खिलाकर बचा-खुचा, रूखा-सूखा स्वयं खाती है, फिर भी उसे ताने-उलाहने सुनने पड़ते हैं, “न जाने इस चुड़ैल का पेट है या भाड़।”
2. पीड़ित एवं व्यथित : निरीह सुभागी अपना दुखड़ा किसके सामने रोए? उसकी व्यथा-कथा को सुनकर कौन उसके प्रति संवेदना प्रकट करेगा? वह अनपढ़ है, गँवार है और एक साध रण स्त्री है। वह चुपचाप सारी पीड़ा और भर्त्सना आँचल में मुँह छिपाए पीती रहती है और भीतर ही भीतर घुटती रहती है। वह उस नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने दांपत्य जीवन के वैषम्य के कारण दुखी और पीड़ित है। यह वर्ग अपनी मर्म-व्यथा का एक शब्द भी नहीं बोल सकता। प्याज न मिलने पर उसका पति भैरों गरजता है- “क्या मुझे बैल समझती है, कि भुने हुए मटर लाकर रख दिए, प्याज क्यों नहीं लाई?”
3. चारित्रिक दृढ़ता : मार-पीट के बावजूद सुभागी के चरित्र में कोई स्खलन दिखाई नहीं देता। पति के दुर्य्यवहार के बाद भी वह उसकी मंगल-कामना ही करती है। वह सूरदास का आश्रय अपनी इज्जत आबरू बचाने के लिए लेती है। ………… लेकिन मेरी आबरू कैसे बचेगी? है कोई मुहल्ले में ऐसा, जो किसी की इज्जत आबरू जाते देखे, तो उसकी बाँह पकड़ ले।”
4. कृतज्ञता का भाव-अनपढ़ और गँवार है तो क्या, सुभागी में मनुष्यता का गुण विद्यमान है। उसमें कृतज्ञा की भावना है। सुभागी के आड़े अवसर पर सूरदास ही काम आता है। इसलिए सूरदास के प्रति उसके मन में कृतज्ञता का भाव है। जब उसे पता चलता है कि भैरों ने सूरदास के रुपयों की थैली चुराई है तब वह निश्चय करती है-अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले; पर रहूँगी उसी के घर। कहाँ-कहाँ थैली को छिपाएगा? कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर बिपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है, मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपये न दिला दूँगी। मुझे चैन न आएगा।”
‘सूरदास की झोपड़ी’ पाठ के आधार पर सूरदास का चरित्र-चित्रण कीजिए।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास रंगभूमि का एक अंश है। इस उपन्यास का नायक सूरदास है। वह उपन्यास की ऐसी केन्द्रीय धूरी है, जिसके इर्द-गिर्द समस्त कथाचक्र घूमता है। सूरदास दृष्टिहीन एवं गरीब है। वह सारी जिंदगी भीख माँगकर अपना जीवन-यापन करता है। उसने लगभग 500 रु. की पूँजी भी एकत्रित कर ली, जिसे वह पोटली में बाँधकर रखता था। सूरदास सद्दादय व्यक्ति है। वह एक अनाथ बालक मिटुआ का पालन-पोषण करता है। जब भैंरो अपनी पत्नी सुभागी को मारता-पीटता है तब सूरदास उसे अपनी झोंपड़ी में आश्रय देता है। उसकी इसी सद्ददयता का गलत अर्थ लगाया जाता है और उसकी झोपड़ी को आग लगा दी जाती है।
सूरदास आत्मविश्वासी है। वह मिठुआ से कहता भी है-“‘हम दूसरा घर बनाएँगे ……. सौ लाख बार बनाएँगे।” सूरदास सहनशील व्यक्ति है। झोंपड़ी में आग लग जाने में उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है, पर वह सारा नुकसान घैर्यपूर्वक सह जाता है। सूरदास भविष्य के प्रति आशावान बना रहता है। वह सब कुछ पुनः ठीक हो जाने की आशा बनाए रखता है।
सूरदास की विशेषता यह है कि झोंपड़ी जला दिये जाने के बावजूद भी वह किसी से प्रतिशोध लेने में विश्वास नहीं करता बल्कि पुनर्निर्माण में विश्वास करता है। क्या इस प्रकार का चरित्र आज के परिप्रेक्य्य में भी उचित है ? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करें।
प्रतिशोध की भावना अधिकतर ऐसे व्यक्तियों में पाई जाती है जो शक्ति, सत्ता तथा पद की अभिलाषा से ओत-प्रोत होते हैं तथा कभी अपने आप को नीच नहीं होने देना चाहते। ऐसे व्यक्ति किसी नियम, परम्परा व सामाजिक व्यवस्था की परवाह नहीं करते। यदि समाज में ऐसे व्यक्ति अधिक हो जाएँगे तो सामाजिक व्यवस्था में अप्रतिकार्य ह्वास होगा तथा वह ध्वस्त हो जाएगी। समाज में विषमताएँ बढ़ जाएँगी तथा अधिकतर लोग कुंठित हो जाएँगे।
लोगों में क्षमा भाव, परोपकारिता व अन्य सार्वभौमिक मूल्यों का अभाव हो जाएगा। यह समाज को पतन की ओर ले जाएगा।
प्रतिशोध क्रोध के कारण उत्दन्न एक हिंसात्मक (शारीरिक अथवा मानसिक) प्रतिक्रिया है। यह पथ से भटके हुए व्यक्ति का वह प्रयास है जिसमें वह अपनी लज्जा को अपनी प्रतिष्ठा में बदलना चाहता है। प्रतिशोध से किसी को कभी भी लाभ नहीं पहुँचा है। यह केवल तंत्रिका-तंत्र में उत्पन्न होने वाली उत्तेजनाओं से प्राप्त होने वाले भ्रामक आनन्द जैसा होता है। इसलिए सभी मनुष्यों को ऐसी व्यवस्था स्थापित करने में सहायता करनी चाहिए जिसमें सभी जनों को समानता प्राप्त हो व समाज में प्रतिशोध की भावना समाप्त हो जाए।
जीवन में आगे बढ़ने हेतु सकारात्मक प्रवृत्ति की आवश्यकता है। इस तथ्य को न्यायसंगत ठहराने हेतु तर्क प्रस्तुत कीजिए।
जीवन की सार्थकता हेतु सकारात्मक चरित्र की आवश्यकता :
यदि हमारा चरित्र सकारात्मक होगा तो हम लक्ष्य प्राप्ति के लिए अधिक से अधिक प्रयास करने के लिए अभिप्रेरित रहेंगे।
यदि हमारा चरित्र सकारात्मक होगा तो कठिनाइयाँ, कठिनाइयाँ न होकर सीखने व आगे बढ़ने के अवसर बन जाएँगी।
हमारा आत्मविश्वास ऊँचा रहेगा तथा हम अपने आप में विश्वास रख सकेंगे।
यदि हम सकारात्मक हुए तो हमें तनाव कम होगा तथा हमारे अधिक मित्र होंगे। हम अपने कार्य से आनन्द प्राप्त कर सकेंगे।
(क) सूरदास अपनी आर्थिक हानि को क्यों गुप्त रखना चाहता था ? आपकी दृष्टि में क्या उसका ऐसा सोचना सही था ? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
(ख) उपर्युक्त पाठांश के आधार पर सूरदास के व्यक्तित्व का कौन-सा पक्ष आपको अच्छा प्रतीत होता है ?
(क) सूरदास अपनी आर्थिक हानि को इसलिए गुप्त रखना चाहता था ताकि लोग उसके बारे में गलत धारणा न बना सकें। एक भिखारी के पास धन जमा होना लज्जाजनक स्ञ्थिति की परिचायक मानी जाती है। वह इस धन से अनेक कार्य संपन्न तो करना चाहता था, पर आकस्मिक ढंग से। वह पूरा श्रेय ईश्वर को देना चाहता था। उसका ऐसा सोचना सही था। सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाए रखना आवश्यक होता है।
(ख) सूरदास के व्यक्तित्व के अनेक पक्ष इस पाठ में उजागर होते हैं। हमें उसके व्यक्तित्व का यह पक्ष अच्छा प्रतीत होता कि वह लोक-लज्जा की परवाह करने वाला है। वह स्वार्थी एवं लालची नहीं है। वह तो दूसरों के लिए अपना संचित धन खर्च करना चाहता है। वह मान-अपमान की भी परवाह करता है। सामाजिकता की भावना का सम्मान करना उसके व्यक्तित्व का उजला पक्ष है।
क) जगधर ने भैरों को क्या सलाह दी थी ? इसके पीछे उसकी क्या भावना थी ? क्या इसे उचित मानते हैं ?
(ख) इस पाठांश के आधार पर भैरों के चरित्र की कौन-सी प्रवृत्ति उभरकर सामने आती है ? आपकी दृष्टि में क्या यह उचित है ? तर्क दीजिए।
(क) जगधर ने भैरों को यह सलाह दी थी कि सूरदास के रुपयों को लौटा दो क्योंकि यह उसकी मेहनत की कमाई है। यद्यपि उसकी यह सलाह सर्वथा उचित थी, पर इस समय उसने यह सलाह ईर्य्यावश और स्वार्थ के वशीभूत होकर दी थी। वह यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था कि भैरों के हाथ अनायास इतना ध न लग जाए। वह भी अपना हिस्सा चाहता था। हमारी दृष्टि में यह कतई उचित नहीं है। उसे भैरों पर दबाव डालकर सूरदास का ध न लौटवाना चाहिए था।
(ख) इस पाठांश के आधार पर कहा जा सकता है कि भैरों के चरित्र का काला पक्ष उभरता है। वह बदला लेने के लिए किसी भी सीमा तक गिर सकता है। उसमें लोभ की प्रवृत्ति भी है। हमारी दृष्टि में भैरों के चरित्र की स्वार्थी एवं लोभी प्रवृत्ति सर्वथा अनुचित है। उसे अंधे सूरदास के रुपए लौटा देने चाहिए थे। इससे उसका दु:ख कम हो जाता।
सूरदास झोंपड़े में लगी आग के समय लोगों के चले जाने के बाद कहाँ बैठा हुआ था ? वह क्या सोच
सूरदास के झोपड़े में आग लग गई थी। इस अवसर पर अनेक लोग जमा हो गए थे। वे कुछ देर वहीं रुके रहे। बाद में सब लोग इस दुर्घटना पर आलोचनाएँ करते हुए विदा हुए। सन्नाटा छा गया किंतु सूरदास अब भी वहीं बैठा हुआ था। उसे झोंपड़े के जल जाने का दु:ख न था, बरतन आदि के जल जाने का भी दुःख न था; दुःख था उस पोटली का, जो उसकी उम्र-भर की कमाई थी, जो उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थी, जो उसकी सारी यातनाओं और रचनाओं का निष्कर्ष थी। इस छोटी-सी पोटली में उसका, उसके पितरों का और उसके नामलेवा का उद्धार संचित था।
यही उसके लोक और परलोक, उसकी दीन-दुनिया का आशा-दीपक थी। उसने सोचा-पोटली के साथ रुपये थोड़े ही जल गए होंगे ? अगर रुपये पिघल भी गए होंगे तो चाँदी कहाँ जाएगी ? क्यश जानता था कि आज यह विपत्ति आने वाली है, नहीं तो यहीं न सोता। पहले तो कोई झोंपड़ी के पास आता ही न और अगर आग लगाता भी, तो पोटली को पहले से निकाल लेता। सच तो यों हैं कि मुझे यहाँ रुपए रखने ही न चाहिए थे पर रखता कहाँ ? मुहल्ले में ऐसा कौन है, जिसे रखने को देता ? हाय । पूरे पाँच सौ रुपये थे, कुछ पैसे ऊपर हो गए थे। क्या इसी दिन के लिए पैसे-पैसे बटोर रहा था ? खा लिया होता, तो कुछ तस्कीन होती।
क्या सोचता था और क्या हुआ ! गया जाकर पितरों को पिंड देने का इरादा था। अब उनसे कैसे गला छूटेगा ? सोचता था, कहीं मिटुआ की सगाई ठहर जाए, तो कर डालूँ। बहु घर में आ जाए, तो एक रोटी खाने को मिले ! अपने हाथों ठोंक-ठोंकर खाते एक जुग बीत गया। बड़ी भूल हुई। चाहिए था कि जैसे-जैसे हाथ में रुपये आते, एक-एक काम पूरा करता जाता। बहुत पाँव फैलाने का यही फल है।
सूरदास की झोपड़ी में आग किसने लगाई, यह जानने को जगधर क्यों बेचैन था ? झोपड़ी जल जाने पर भी सूरदास का किसी से प्रतिशोध न लेना क्या इंगित करता है? अपना अनुमान बताइए।
सूरदास की झोंपड़ी में आग भैरों ने लगाई थी। भैरों सूरदास से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। उसे सूरदास के रुपयों का भी लोभ था। अतः उसने रुपए चुराने के बाद झोंपड़ी में आग लगा दी। जगधर आग लगाने वाले के बारे में जानने के लिए इसलिए बेचैन था क्योंकि उसे सूरदास के यहाँ रखे हुए पाँच सौ रुपए की चिंता हो रही थी।
वह सोच रहा था कि वे रुपए अब भैरों अकेले ही हड़प लेगा। वह भैरों के पास सूरदास के पाँच सौ से अधिक रुपए देखकर ईर्ष्यालु हो जाता है, उसकी छाती पर ईर्ष्या। का साँप लोट रहा था-” भैरों को दम के दम इतने रुपये मिल गए। अब यह मौज उड़ाएगा … ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ पाता तो जिंदगी सफल बन जाती।” झोंपड़ी जल जाने पर भी सूरदास किसी से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था। वह किसी पर यह प्रकट नहीं करता था कि उसके पास पाँच सौ से अधिक रुपए थे। एक भिखारी के पास धन का होना लज्जा की बात माना जाता है। वैसे सूरदास संतोषी स्वभाव का था।
‘सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा’-इस कथन के संदर्भ में सूरदास की मनोदशा का वर्णन अपने ढंग से कीजिए।
जब सूरदास की झोपड़ी जल गई थी तब सूरदास नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के सागर के जल में गोता खा रहा था। तब वह अत्यंत दुखी था। झोपड़ी जल जाने का उसे इतना दुख न था जितना दुख उस पोटली का था, जिसमें उसकी उम्रभर की कमाई थी। यही पोटली उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थी, उसकी सारी यातनाओं का निष्कर्ष थी।
तभी उसे घीसू का मिठुआ को यह कहते सुनाई पड़ा-‘ खेल में रोते हो।’ यह चेतावनी सुनते ही सूरदास को ऐसा मालूम हुआ जैसे किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया हो। उसे लगा कि यह जीवन भी तो एक खेल है और मैं इस खेल में रो रहा हूँ अर्थात् दुखी हो रहा हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी नहीं रोते, बाजी-पर बाजी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, ध क्के-पर-धक्के सहते हैं, पर मैदान में डटे रहते हैं। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छींटे भी नही आते, न किसी से जलते हैं, न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा ? खेल हँसने के लिए है, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।
इस प्रतीति ने सूरदास को उत्साह से भर दिया। वह उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग के साथ झोंपड़ी की राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा। अब उसकी मनोदशा उस खिलाड़ी के समान हो गई जो एक बार हारने के बाद पुन: पूरे उत्साह से खेल जीतने के लिए कमर कस लेता है।
‘तो हम सौ लाख बार बनाएँगे ‘-इस कथन के संदर्भ में सूरदास के चरित्र की विवेचना कीजिए।
जब सूरदास का पालित मिठुआ उससे पूछता है कि क्या हम बार-बार झोपड़ी बनाते रहेंगे तब सूरदास ‘हाँ’ में उत्तर देता है। अंत में मितुआ पूछ्ता है-और जो कोई सौ लाख बार (आग) लगा दे ? तब सूरदास उसी बालोचित सरलता से उत्तर देता है-“तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।”
उपर्युक्त कथन के आधार पर सूरदास के चरित्र का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है :
सूरदास में निर्णय लेने की क्षमता है। वह विषम परिस्थितियों में थोड़ी देर के लिए विचलित अवश्य होता है, पर शीघ्र ही उबर आता है और सृजन करने का निर्णय ले लेता है। वह नई झोपड़ी बनाने की दिशा में प्रयत्नशील हो जाता है। सूरदास के व्यक्तित्व में हार न मानने की प्रवृत्ति है। वह अपने शत्रुओं के समक्ष हार नहीं मानता। वह अपनी धुन का पक्का है। वह उनसे तब तक लड़ना चाहता है जब तक वे हार न मान जाएँ। सूरदास कर्मशील है। वह काम करने में विश्वास रखता है। तभी तो वह रोने-पीटने में समय गँवाने के स्थान पर पुन: झोंपड़ी बनाने के काम में जुट जाता है। सूरदास के मन में प्रतिशोध लेने की भावना नहीं है। वह सब कुछ जानकर भी किसी को इस दुर्घटना के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराता। वह सारी मुसीबत स्वयं झेल जाता है।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ का कथ्य क्या है?
‘सूरदास’ प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का मुख्य पात्र है। वह अंधा है तथा भिक्षा माँगकर अपना भरण-पोषण करता है। उसके एक बालक मिटुआ भी रहता है। उसे गाँव के जगधर और भैरों अपमानित करते रहते हैं। भैरों की पत्नी का नाम सुभागी है। भैरों उसे मारता-पीटता है। अतः वह वहाँ से भागकर सूरदास की झोंपड़ी में शरण ले लेती है। भैरों उसे मारने सूरदास की झोपड़ी में घुस आता है किंतु सूरदास के हस्तक्षेप के कारण उसे मार नहीं पाता। इस घटना को लेकर पूरे मोहल्ले में सूरदास की बदनामी होती है। जगधर और भैरों सूरदास के चरित्र पर उंगली उठाते हैं।
इस घटनाचक्र से सूरदास फूट-फूटकर रोता है। जगध भैरों को उकसाता है क्योंकि वह सूरदास से ईर्ष्या करता है। सूरदास और सुभागी के संबंधों को लेकर पूरे मोहल्ले में हुई बदनामी से भैरों स्वयं को अपमानित करता है और बदला लेने का निश्चय करता है। एक दिन वह सूरदास के रूपयों की थैली उठा लाता है तथा रात को उसकी झोपड़ी में आग लगा देता है। सूरदास के चरित्र की यह विशेषता है कि वह झोपड़ी जला दिए जाने के बावजूद किसी से प्रतिशोध लेने में विश्वास नहीं करता और झोंपड़ी के पुनर्निर्माण में जुट जाता है।
सूरदास ने अपनी रुपयों की पोटली को बूँढने का क्या उपाय किया? उसके हाथ क्या-क्या चीजें लगी?
जब लोग चले गए, तब सूरदास ने अपनी रुपयों की पोटली को ढूँढने का विचार किया। वह इसके उपाय में जुट गया। उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर से झोंपड़े में घुसा; पर दो-तीन पग के बाद एकाएक पाँव भूबल (गर्म राख) में पड़ गया। ऊपर राख थी, लेकिन नीचे आग। तुर्त पाँव खींच लिया और अपनी लकड़ी से राख को उलटने-पलटने लगा, जिससे नीचे की आग भी जल्द राख हो जाए। आध घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दी, और तब फिर डरते-डरते राख में पैर रखा। राख गरम थी, पर असह्म न थी।
उसने उसी जगह की सीध में राख को टटोलना शुरू किया, जहाँ छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपये मिलें या न मिलें, पर चाँदी तो कहीं गई ही नहीं। सहसा वह उछल पड़ा, कोई भारी चीज हाथ लगी। उठा लिया; पर टटोलकर देखा, तो मालूम हुआ इंट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगा, जैसे कोई आदमी पानी में मछलियाँ टटोले। कोई चीज हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक-एक मुट्ी राख हाथ में लेकर देखी। लोटा मिला, तवा मिला, किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैर, जो अब तक सीढ़ी पर था, फिसल गया और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीख निकल आई। वह वहीं राख पर बैठ गया और बिलख-बिलखकर रोने लगा। यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दु:ख उसे कभी न हुआ था।
जब सूरदास की झोपड़ी में आग लगी, तब वहाँ क्या दृश्य उपस्थित हो गया?
जब सूरदास की झोंपड़ी में आग लगी उस समय रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात सूरदास की झोपड़ी में ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम-के-दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वालाएँ लपक-लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण-कलश का सा हो जाता था, कभी वे वायु के झोंकों से यों कंपित होने लगती थीं, मानो जल में चाँद का प्रतिबिम्ब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा था पर झोंपड़े की आग, ईष्ष्या की आग की भॉँत कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा था, कोई यों ही शोर मचा रहा था किंतु अधिकांश लोग चुपचाप खड़े नैराश्यपूर्ण दृष्टि से अग्निदाह को देख रहे थे, मानो किसी मित्र की चिताग्नि है। सहसा सूरदास दौड़ा हुआ आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया।
सुभागी ने जगधर पर क्या व्यंग्य किया और उसने उसका क्या उत्तर दिया?
जब जगधर ने भैरों की करतूत के बारे में बताया तो सुभागी ने व्यंग्य करते हुए कहा कि तुम्हीं तो उसके गुरु हो। तुम्हीं ने उसे यह सब करना सिखाया है। तब जगधर बोला-हाँ, यही मेरा काम है, चोरी-डाका न सिखाऊँ, तो रोटियाँ क्योंकर चलें। सुभागी ने फिर व्यंग्य किया-रात ताड़ी पीने को नहीं मिली क्या?
जगधर-ताड़ी के बदले क्या अपना ईमान बेच दूँगा? जब तक समझता था, भला आदमी है, साथ बैठता था, हँसता-बोलता था, ताड़ी भी पी लेता था, कुछ ताड़ी के लालच से नहीं जाता था (क्या कहना है, आप ऐसे धर्मात्मा तो हैं!) लेकिन आज से कभी उसके पास बैठते देखा, तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आग लगाए, गरीबों के रुपए चुरा ले जाए, वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूँ। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पाँच सौ रुपये बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूँ लौटा दो, तो लड़ने पर तैयार होता है।
अंधे भिखारी के लिए क्या बात लज्जा की है? सूरदास अपने रुपयों से क्या-क्या काम करना चाहता था?
अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धन। सूरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था। वह गया जाकर पिंडदान करना चाहता था, मिठुआ का ब्याह करना चाहता था, कुआँ बनवाना चाहता था, किंतु इस ढंग से कि लोगों को आश्चर्य हो कि इसके पास रुपए कहाँ से आए, लोग यही समझें कि भगवान दीनजनों की सहायता करते हैं। भिखारियों के लिए धन-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। वह बोला-मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता? वह मन में यह भी सोच रहा था कि उसे एक-एक काम को बारी-बारी से करते जाना चाहिए, सभी कामों को एक साथ एकत्रित नहीं कर लेना चाहिए था।
इस कहानी के घटनाक्रम के आधार पर जगधर की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
जगधर एक दोहरे चरित्र वाला व्यक्ति है। एक ओर वह भैरों को सूरदास के विरुद्ध उकसाता है तो दूसरी ओर सूरदास का भला बनता है। सूरदास की झोंपड़ी में आग लगने पर वह अपनी सफाई देते हुए कहता है- “मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएँगे, पर मैं भगवान से कहता हूँ, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।” दूसरी ओर वह भैरों की शरारत को समझ जाता है। वह उसे उत्साह देता है- “मेरी सलाह है कि रुपये उसे लौटा दो। बड़ी मसक्कत की कमाई है। हजम न होगी।”
पर जगधर ने यह सलाह नेकनीयती से नहीं दी थी। उसे भैरों से ईर्ष्या हो रही थी। उसे यह असह्म था कि भैरों के हाथ इतने रुपए लग जाएँ। यदि भैरों आधे रुपये उसे भी दे देता तो चैन पड़ जाता। पर भैरों से यह आशा नहीं की जा सकती थी। जगधर की छाती पर साँप लोट रहा था। वह भैरों के भाग्य से चिढ़ रहा था कि अब वह मौज उड़ाएगा। वह अपनी स्थिति का विश्लेषण करता है- “मैं ही कौन-सा दिनभर पुन्न (पुण्य) करता हूँ। दमड़ी-छदाम कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ (कम तौलता हूँ)। बाट खोटे रखता हूँ। तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ हाथ नहीं लगता। अब तक जगधर के मन में ईर्ष्या का अंकुर जम चुका था। उसने सूरदास के पास भैरों द्वारा पोटली चुराए जाने की बात कही। सूरदास ने लज्जावश उस थैली को अपना मानने से इंकार कर दिया। फिर वह सुभागी को भड़काता है-” सुभागी, कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।” इस प्रकार जगधर इधर से उधर लगाता फिरता है।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ के आधार पर भैरों का चरित्र-चित्रण कीजिए।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ में भैरों वह प्रमुख पात्र है. जिसे खलनायक कहा जा सकता है। वह सूरदास से ईष्य्याभाव रखता है और अपनी जलन शांत करने के लिए सूरदास को तरह-तरह से परेशान करता है। उसका चरित्र-चित्रण निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-
1. संवदेनहीन एवं क्रूर : भैरों क्रूर एवं संवेदनहीन व्यक्ति है। वह अपनी पत्नी की भावनाओं का आदर नहीं करता है। वह अपनी पत्नी सुभागी के साथ अक्सर मार-पीट करता है, जिससे बचने के लिए वह सूरदास की झोंपड़ी में शरण लेती है।
2. ईर्ष्यालु : भैरों को सूरदास और उसकी कमाई से घोर ईर्य्या है। वह सूरदास के बारे में जगधर को बताते हुए कहता है-” वह पाजी रोज राहगीरों को ठगकर पैसे लाता है और थाली भरता है। बच्चू को इन्हीं पैसों की गरमी थी जो अब निकल जाएगी। अब मैं देखता हूँ कि किसके बल पर उछलता है।”
3. चोर : भैरों चोरी के काम में भी निपुण है। वह सूरदास की झोपड़ी में धरन के ऊपर रखी रुपयों की पोटली चुरा लेता है, जिसका सूरदास को पता भी नहीं लग पाता है। यही पोटली सूरदास के जीवनभर की कमाई थी।
4. शक्की स्वभाव वाला : भैरों शक्की स्वभाव वाला व्यक्ति है। वह अपनी पत्नी सुभागी और सूरदास के बीच संबंध को अनैतिक मानकर शक करता है और इसी शक के आधार पर सूरदास की झोपड़ी में आग लगा देता है।
5. दुर्विचार रखने वाला : भैरों के विचार एवं भाव भी अच्छे नहीं हैं। वह सूरदास के बारे में कहता है-वह गरीब है। अंधा होने से ही गरीब हो गया? जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डाले, जिसके पास सैकड़ों रुपये जमा हो, जो दूसरों को रुपये उधार देता हो, वह गरीब है?…जब तक उसे रोते हुए न देखूँगा, यह काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता।
सूरदास की झोपड़ी में आग किसने लगाई, यह जानने को जगथर क्यों बेचैन था ? झोंपड़ी जल जाने पर भी सूरवास का किसी से प्रतिशोध न लेना क्या इंगित करता है ? पाठ के आधार पर समझाइए।
सूरदास की झोंपड़ी में आग भैरों ने लगाई थी। भैरों सूरदास से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। उसे सूरदास के रुपयों का भी लोभ था। अतः उसने रुपए चुराने के बाद झोंपड़ी में आग लगा दी। जगधर आग लगाने वाले के बारे में जानने के लिए इसलिए बेचैन था क्योंकि उसे सूरदास के यहाँ रखे हुए पाँच सौ रुपए की चिता हो रही थी। वह सोच रहा था कि वे रुपए अब भैरों अकेले ही हड़प लेगा। वह भैरों के पास सूरदास के पाँच सौ से अधिक रुपए देखकर ईर्ष्यालु हो जाता है, उसकी छाती पर ईर्ष्या का साँप लोट रहा था-” भैंरो को दम के दम इतने रुपये मिल गए। अब यह मौज उड़ाएगा …. ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ पाता तो जिंदगी सफल बन जाती।”
झोपड़ी जल जाने पर भी सूरदास किसी से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था। वह किसी पर यह प्रकट नहीं करता था कि उसके पास पाँच सौ से अधिक रुपए थे। एक भिखारी के पास धन का होना लज्जा की बाक्माना जाता है। वैसे सूरदास संतोषी स्वभाव का था।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ उपन्यास अंश में ईर्ष्या, चोरी, ग्लानि, बदला जैसे नकारात्मक मानवीय पहलुओं पर अकेले सूरदास का व्यक्तित्व भारी पड़ता है। जीवन-मूल्यों की दृष्टि से इस कथन पर विचार कीजिए।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ उपन्यास अंश में बताया गया है कि कुछ व्यक्ति सूरदास से ईष्या करते हैं, उसके रुपयों की चोरी करते हैं तथा उससे बदला लेने का प्रयास करते हैं। भैरों इन सबमें अग्रणी है। भैरों ने जगधर को सूरदास के रुपयों की थैली दिखाते हुए कहा सूरदास ने इसे बड़े जतन से धरू की आड़ में रखा हुआ था। पाजी रोज़ राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपए जमा हो गए।
बच्चू को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं। जगधर की छाती पर साँप लोट रहा था। वह भैरों के भाग्य से चिढ़ रहा था कि अब वह मौज उड़ाएगा। वह अपनी स्थिति का विश्लेषण करता है-” मैं ही कौन-सा दिनभर पुन्न (पुण्य) करता हूँ। दमड़ी-छदाम कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ (कम तौलता हूँ)। बाट खोटे रखता हूँ। तेल की मिठाई घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ हाथ नहीं लगता।”
अब तक जगधर के मन में ईष्य्या का अंकुर जम चुका था। उसने सूरदास के पास भैरों द्वारा पोटली चुराए जाने की बात कही। सूरदास ने लज्जावश उस थैली को अपना मानने से इंकार कर दिया। फिर वह सुभागी को भड़काता है- “सुभागी, कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।” उपर्युक्त नकारात्मक मानवीय पहलुओं पर अकेले सूरदास का व्यक्तित्व भारी पड़ता है। सूरदास सारी विषम परिस्थितियों का सामना साहस व धैर्य के साथ करता है। सूरदास परोपकारी, सहृदय एवं उदारमना है। वह अन्याय सहकर भी भैरों की मार से बचाने के लिए सुभाग को अपनी झोपड़ी में शरण देता है। सूरदास गाँधीवादी विचारधारा की प्रतिमूर्ति है। क्षीणकाय, दीन-दुर्बल, सरलमना सूरदास अपने आत्मबल के सहारे ईर्ष्या, अन्याय के विरुद्ध अंतत: सफलता प्राप्त करता है।
‘सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।’-इस कथन के संदर्भ में सूरदास की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
जब सूरदास ने घीसू द्वारा मिठुआ को चिढ़ाते हुए यह कहते सुना-‘ खेल में रोते हो।’ तब सूरदास की मनोदशा में एकाएक परिवर्तन आ गया।
इससे पहले सूरदास अत्यंत दुखी था।
सूरदास कहाँ तो नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा था, कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे मालूम हुआ किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया हो। वाह ! मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है। लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैं, रोने वाले को चिढ़ाते हैं और मैं खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी-पर-बाजी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, धक्के-पर-चक्के सहते हैं, पर मैदान में डटे रहते हैं, उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छींटे भी नहीं आते, न किसी से जलते हैं न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा ? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।
सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।
“खेल में रोना कैसा ? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।” इस कथन के आलोक में सूरदास का चरित्र-चित्रण कीजिए।
इस कथन के आधार पर सूरदास के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरती हैं :
कर्मशील व्यक्ति : सूरदास एक कर्मशील व्यक्तित्व का स्वामी है। उसमें अपने कर्म के आधार पर विपत्तियों का सामना करने का साहस है।
हार न मानने वाला : सूरदास परिस्थिति से जूझने वाला है। वह एक बार झोंपड़ी के नष्ट हो जाने पर तब तक पुनः बनाने का संकल्प करता है जब तक नष्ट करने वाला थक न जाए।
सहनशील : सूरदास सहनशील व्यक्ति है। झोंपड़ी जलने की घटना में उसका सब कुछ जलकर नष्ट हो जाता है, पर वह सब कुछ धैर्यपूर्वक सह जाता है।
संकल्प का धनी : सूरदास अपने संकल्प का धनी है।
आशावान : सूरदास भविष्य के प्रति आशावान बना रहता है।
सूरदास सह्ददय क्यक्ति है। वह एक अनाथ बालक मिठुआ का पालन-पोषण करता है। जब भैंरो अपनी पत्नी सुभागी को मारता-पीटता है तब सूरदास उसे अपनी झोंपड़ी में आश्रय देता है। उसकी इसी सहायता का गलत अर्थ लगाया जाता है और उसकी झोंपड़ी को आग लगा दी जाती है।
सूरदास आत्मविश्वासी है। वह मिटुआ से कहता भी है-” हम दूसरा घर बनाएँगे ….. सौ लाख बार बनाएँगे।”
सूरदास सहनशील व्यक्ति है। झोंपड़ी में आग लग जाने में उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है, पर वह सारा नुकसान धैर्यपूर्वक सह जाता है।
“सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी पर बाजी हारते हैं, चोट पर चोट खाते हैं, धक्के पर धक्के सहते हैं पर मैदान में डटे रहते हैं।” ‘सूरदास की झोपड़ी’ पाठ का यह कथन पाठकों को क्या संदेश देता है? अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
घीसू का यह वाक्य ‘मिठुआ खेल में रोते हो’, सूरदास को अंदर तक झकझोर गया। वह चिंता, शोक तथा ग्लानि से मुक्त हो उठ खड़ा हुआ। उसे लगा सच्चे खिलाड़ी कभी नहीं रोते, बाजी पर बाजी हारते हैं, चोट पर चोट खाते हैं, धक्के सहते हैं, पर मैदान में डटे रहते हैं। किसी से न जलते हैं, न चिढ़ते हैं। हिम्मत व धैर्य से काम लेते हैं। जिंदगी खेल है हँसने के लिए. दिल बहलाने के लिए, रोने के लिए नहीं। हमें भी जीवन को खेल समझकर खेलना है, इसमें निराशा कुंठा का कोई स्थान नहीं। हमें भी सूरदास की तरह सच्चा खिलाड़ी बनकर निराशा में आशा का दामन नहीं छोड़ना है। किसी से ईर्ष्या एवं जलन नहीं करनी अपितु साहस से विपत्ति और विषम परिस्थितियों का सामना करना चाहिए। भगवान उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करता है। कर्म द्वारा जीवन-संग्राम को जीतना चाहिए। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलकर जीवन को सफल बनाना चाहिए।
सूरवास की झोंपड़ी में आग किसने और क्यों लगाई? झोपड़ी जलने के बाद सूरदास की मनोदशा पर टिप्पणी कीजिए।
सूरदास की झोपड़ी में आग भैरों ने लगाई थी। भैरों ने सूरदास की झोपड़ी में आग इसलिए लगाई क्योंकि वह सूरदास से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। सूरदास ने भैरों की पत्नी सुभागी को अपनी झोंपड़ी में छिपाकर रखा था। भैरों सुभागी को पीटने पर उतारू था। उस समय सूरदास ने हस्तक्षेण करके उसे ऐसा करने से रोक दिया था। अपनी झोंपड़ी में सुभागी को आश्रय देकर सूरदास ने भैरों के क्रोध को भड़का दिया था। दूसरी ओर सूरदास और सुभागी के संबंधों की चर्चा पूरे मुहल्ले में हो रही थी। इससे भैरों की बदनामी हो रही थी। भैरों ने अपने अपमान और बदनामी का बदला लेने का निश्चय किया। इसी निर्णय के वशीभूत होकर भैरों ने एक दिन सूरदास की झोपड़ी में आग लगा दी। उसे सूरदास के छिपाकर रखे गए रुपयों का भी लालच सता रहा था। उसने रुपयों की पोटली चुराने के बाद झोपड़ी में आग लगा दी। वह सूरदास को रोते हुए देखना चाहता था।
सूरदास की मनोदशा : सूरदास की झोपड़ी में लगी आग कुछ देर बाद बुझ गई। लोग तो इस अग्निकांड पर टिप्पणी करके वहाँ से विदा हो गए, पर सूरदास वहीं बैठा रहा। उसे झोंपड़ी जल जाने का इतना दुख नहीं था, जितना दुख उसे अपनी उस पोटली का था, जिसमें उसकी जीवन भर की कमाई थी। पोटली में रखे रुपए ही उसके जीवन की अनेक आशाओं के आधार था। उसी पोटली के रुपयों से पितरों का श्राद्ध करना चाहता था तथा मिठुआ का उद्धार करना चाहता था, कुआँ बनवाना चाहता था। झोपड़ी जल जाने पर भी सूरदास किसी से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता। वह अपनी आर्थिक हानि को भी गुप्त रखना चाहता है। लोग उसका मज्ञाक उड़ाएँगे कि एक भिखारी के पास इतना धन कहाँ से आया क्योंकि भिखारियों के लिए धन-संचय करना अपमान की बात मानी जाती है। वह सारी परिस्थिति को भाँपकर शांत बना रहता है।
‘सूरदास की झोपड़ी’ कहानी से उभरने वाले जीवन-मूल्यों का उल्लेख करते हुए आज के संदर्भ में उनकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
‘सूरदास की झोपड़ी’ उपन्यास अंश में बताया गया है कि कुछ व्यक्ति सूरदास से ईर्ष्या करते हैं, उसके रुपयों की चोरी करते हैं तथा उससे बदला लेने का प्रयास करते हैं। भैरों इन सबमें अग्रणी है। भैरों ने जगधर को सूरदास के रुपयों की थैली दिखाते हुए कहा सूरदास ने इसे बड़े जतन से धरू की आड़ में रखा हुआ था। पाजी रोज़ राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपए जमा हो गए। बच्चू को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं।
जगधर की छाती पर साँप लोट रहा था। वह भैरों के भाग्य से चिढ़ रहा था कि अब वह मौज उड़ाएगा। वह अपनी स्थिति का विश्लेषण करता है-“मैं ही कौन-सा दिनभर पुन्न (पुण्य) करता हूँ। दमड़ी-छदाम कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ (कम तौलता हूँ)। बाट खोटे रखता हूँ। तेल की मिठाई घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँँवाने पर भी कुछ हाथ नहीं लगता।”‘ अब तक जगधर के मन में ईर्या का अंकुर जम चुका था। उसने सूरदास के पास भैरों द्वारा पोटली चुराए जाने की बात कही। सूरदास ने लज्जावश उस थैली को अपना मानने से इंकार कर दिया। फिर वह सुभागी को भड़काता है-” सुभागी,
कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।” उपर्युक्त नकारात्मक मानवीय पहलुओं पर अकेले सूरदास का व्यक्तित्व भारी पड़ता है। सूरदास सारी विषम परिस्थितियों का सामना साहस व धैर्य के साथ करता है। सूरदास परोपकारी, सहृदय एवं उदारमना है। वह अन्याय सहकर भी भैरों की मार से बचाने के लिए सुभागी को अपनी झोपड़ी में शरण देता है। सूरदास गाँधीवादी विचारधारा की प्रतिमूर्ति है। क्षीणकाय, दीन-दुर्बल, सरलमना सूरदास अपने आत्मबल के सहारे ईष्ष्या, अन्याय के विरुद्ध अंतत: सफलता प्राप्त करता है। आज के समय को देखते हहए व्यक्ति इन उपयोगिताओं को नहीं समझता परंतु धैर्यपूर्वक सफलता पाना अति सुलभ कार्य होता है।
‘अंधापन क्या कोई थोड़ी बिपत थी कि नित ही एक-ही-एक चपत पड़ती रहती है।’-कथन के आधार पर सूरदास के संदर्भ में दृष्टिहीन दिव्यांगजनों की कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए लगभग 80-100 शब्दों में उत्तर लिखिए।
सूरदास अंधा है। इस अंधेपन के कारण उसे नित्य नई बाधाओं, कष्टें का सामना करना पड़ता है। अंधे व्यक्ति को अपने दैनिक जीवन-निर्वाह में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कभी उसे लोगों के ताने सुनने पड़ते हैं, कभी उसकी झोपड़ी में आग लगा दी जाती है, कभी उसकी जमा-पूँजी चुरा ली जाती है, कभी उसे अपमानित किया जाता है। वह इन सब कठिनाइयों को धैर्यपूर्वक झेलता है।
दृष्टिहीन विकलांगजनों को इसी प्रकार की कठिनाइयों को झेलना पड़ता है। यह उनकी नियति बन गई है। दृष्टिहीन दिव्यांगजनों की सबसे बड़ी कठिनाई उनको दैनिक जीवन को संचालित करने में आती है। इसके लिए उन्हें किसी सहायक की आवश्यकता होती है। पर हर समय यह संभव नहीं हो पाता है। उन्हें स्वावलंबी बनना पड़ता है। उन्हें स्वयं छड़ी के सहारे रास्ता टटोलना पड़ता है, स्वयं भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती है। भोजन स्वयं बनाने में कई बार दुर्घटना भी हो जाती है। फिर एक बड़ी समस्या उनकी शिक्षा-दीक्षा को लेकर आती है।
अंधवविद्यालयों की संख्या अपर्याप्त है। सामान्य स्कूलों में दृष्टिहीन का प्रवेश कठिनाई से होता है। सभी उन्हें टरकाने का प्रयास करते हैं। उनके पाठ्यक्रम से संबंधित सभी पुस्तकें ब्रेललिपि में उपलब्ध नहीं हो पाती अतः उन्हें दूसरे बालकों पर निर्भर रहना पड़ता है। पढ़ाई के बाद दृष्टिहीनों के सामने नौकरी की समस्या आती है। यद्यपि सरकार ने उनके लिए नौकरी में आरक्षण की कुछ व्यवस्था की है, पर उसका क्रियान्वयन पूरी तरह से नहीं हो पाता है। दृष्टिहीनों को जीवन-साथी मिलने की समस्या से भी जूझना पड़ता है।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ के कथानक पर प्रकाश डालिए।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का एक अंश है। इसका नायक सूरदास है। वह एक दृष्टिहीन व्यक्ति है। एक दृष्टिहीन व्यक्ति जितना बेबस और लाचार जीवन जीने के लिए विवश होता है, सूरदास ठीक इसके विपरीत है। सूरदास अपनी परिस्थितियों से जितना दुखी व आहत है, उससे कहीं अधिक आहत है-भैरों और जगधर द्वारा किए जा रहे अपमान से और उनकी ईर्य्या से।
भैरों की पत्नी सुभागी भैरों की मार के डर से सूरदास की झोंपड़ी में छिप जाती है। सुभागी को मारने के लिए भैरों सूरदास की झोंपड़ी में घुस आता है, किंतु सूरदास के हस्तक्षेप से वह सुभागी को मार नहीं पाता। इस घटना को लेकर पूरे मुहल्ले में सूरदास की बदनामी होती है। जगधर और भैरों तथा अन्य लोग उसके चरित्र पर उँगली उठाते हैं। भैरों को उकसाने और भड़काने में जगधर की प्रमुख भूमिका रही। उसे ईर्य्या इस बात की थी कि सूरदास चैन से रहता है, खाता-पीता है।
भैरों की पत्नी सुभागी पर भी जगधर की नज़र रहती है। बदनामी और अपने अपमान से आहत होकर भैरों बदला लेने की सोचता है। उसने निश्चय कर लिया कि जब तक वह सूरे को रुलाएगा, तड़पाएगा नहीं, तब तक उसे चैन नहीं पड़ेगा। एक दिन उसने सूरदास की झोंपड़ी में रखी उसकी थैली को उठा लिया और फिर झोपड़ी में आग लगा दी।
सूरदास के चरित्र की यह विशेषता है कि झोंपड़ी के जला दिए जाने के बावजूद वह किसी से भी प्रतिशोध लेने के बारे में सोचता तक नहीं, बल्कि पुनर्निर्माण में विश्वास रखता है। इसीलिए वह मिठुआ के सवाल-” जो कोई सौ लाख बार झोंपड़ी को आग लगा दे तो ” के जवाब में दृढ़ता के साथ कहता है-” तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।”
इसी कथन के साथ कथानक समाप्त होता है।
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