NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antara Chapter 7: Barahamasa describe the elaboration of the various months of the Indian calendar with their distinct characteristics. Barahamasa represents, in poetic form, the month-to-month essence of existence associated with their cultural and natural beauty. Chapter Barahamasa for Class 12 aids the students in exploring the various literary devices deployed to portray seasonal changes and their impacts on human emotions and activities. The solutions give a comprehensive discussion on the poetic expressions and metaphors used within the poem, which would help students appreciate the richness of Hindi literature.
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अगहन मास की विशेषता बताते हुए विरहिणी (नागमती) की व्यथा-कथा का चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।
अगहन मास में दिन छोटे हो जाते हैं और रातें लंबी हो जाती हैं। विरहिणी नायिका के लिए ये लंबी रातें काटनी अत्यंत दुःखदायी होती हैं। रात के समय वियोग की पीड़ा अधिक कष्टदायक प्रतीत होती है। नागमती को तो दिन भी रात के समान प्रतीत होते हैं। वह तो विरहागिन में दीपक की बत्ती के समान जलती रहती है। अगहन मास की ठंड उसके हुदय को कँपा जाती है। इस ठंड को प्रियतम के साथ तो झेला जा सकता है, पर उसके प्रियतम तो बाहर चले गए हैं। जब वह अन्य स्त्रियों को सं-बिंगे वस्त्रों में सजी-धजी देखती है तब उसकी व्यथा और भी बढ़ जाती है। इस मास में शीत से बचने के लिए जगह-जगह आग जलाई जा रही है, पर विरहिणियों को तो विरह की आग ज़ला रही है। नागमती के हृदय में विरह की अग्नि जल रही है और उसके तन को दग्ध किए दे रही है।
‘जीयत खाइ मुएँ नहि छाँड़ा’ पंक्ति के संदर्भ में नायिका की विरह-दशा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
नागमती (नायिका) विरह को बाज के समान बताती है। बाज नोंच-नोंच कर खाता है। यह विरह रूपी बाज भी नायिका के शरीर पर नजर गढ़ाए हुए है। वह उसे जीते-जी खा रहा है। उसे लगता है कि उसके मरने पर भी यह उसका पीछा नहीं छोड़ेगा। नायिका विरह-दशा को झेलते-झेलते तंग आ चुकी है। अब इसे सहना कठिन हो गया है। शीत में अकेले काँप-काँप कर वह मरी जा रही है। इस विरह के कारण नायिका के शरीर का सारा रक्त बहता चला जा रहा है। उसका सारा मांस गल चुका है और हड्डुयाँ शंख के समान सफेद दिखाई देने लगी हैं। वह प्रिय-प्रिय रटती रहती है। वह मरणासन्न दशा में है। वह चाहती है कि उसका पति आकर उसके पंखों को तो समेट ले।
माघ महीने में विरहिणी को क्या अनुभूति होती है?
माघ मास में शीत चरमसीमा पर होता है। अब पाला पड़ने लगता है। दिरहिणी के लिए माघ मास के जाड़े में विरह को झेलना मृत्यु के समान प्रतीत होता है। पति के आए बिना माघ मास का जाड़ा उसका पीछा नहीं छोड़ेगा। अब विरहिणी नायिका के मन में काम भाव उत्पन्न हो रहा है, अतः उसे प्रिय-मिलन की इच्छा हो रही है। माघ मास में वर्षा भी होती है। वर्षा के कारण नायिका के कपड़े गीले हो जाते हैं और वे बाण के समान चुभते हैं। वियोग के कारण न तो वह रेशमी वस्त्र पहन पा रही है और न गले में हार पहन पाती है। विरह में वह सूखकर तिनके की भाँति हो गई है। विरह उसे जलाकर राख बनाकर उड़ा देने पर तुला प्रतीत होता है।
वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से ढाँखें किस माह में गिरते हैं ? इससे विरहिणी का क्या संबंध है ?
वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से ढाँखें फागुन मास में गिरते हैं। इससे विरहिणी का यह संबंध है कि उसकी उदासी भी दुगुनी हो जाती है। उसकी आशाएँ भी पत्तों के समान झड़ती चली जा रही हैं। विरहिणी शरीर भी पत्ते के समान पीला पड़ता जा रहा है। विरहिणी नागमती का दु:ख तो दुगुना हो गया है। फागुन मास के अंत में वृक्षों पर तो नए पत्ते और फूल आ जाएँगे पर उस विरहिणी के जीवन में खुशियाँ कब लौट पाएँगी, यह अनिश्चित है।
निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या कीजिए –
(क) पिय सो कहेहु संदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग।।
ख) रकत ढरा माँसू गरा हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई आइ समेटहु पंख।।
(ग) तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
नेहि पर बिरह जराई कै चहै उड़ावा झोल।।
(घ) यह तन जारौं छार कै कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परौं कंत धरें जहँ पाउ।।
(क) विरहिणी नागमती भौंरा और कौए के माध्यम से अपनी विरह-व्यथा का हाल प्रियतम तक ले जाने का आग्रह करती है। वह कहती है कि मेरे प्रियतम (राजा रत्नसेन) से जाकर कहना कि तुम्हारी पत्नी तो तुम्हारे विरह की अगिन में जल मरी। उसी आग से जो धुआँ उठा उसी के कारण हमारा रंग काला हो गया है। (अतिशयोक्ति)
(ख) विरहिणी नायिका नागमती कहती है कि विरह के कारण मेरे शरीर का सारा रक्त ढर गया (बह गया), मेरे शरीर का सारा मांस गल चुका है और सारी हड्डियाँ शंख के समान हो गई हैं। मैं तो सारस की जोड़ी की भाँति प्रिय को रटती हुई मरी जा रही हूँ। अब मैं मरणावस्था में हूँ। अब तो मेरे प्रिय यहाँ आकर मेरे पंखों को समेट लें।
(ग) विरहिणी नायिका अपनी दीन दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि हे प्रिय! तुम्हारे बिना, मैं विरह में सूखकर तिनके के समान दुबली-पतली हो गई हूँ। मेरा शरीर वृक्ष की भाँति हिलता है। इस पर भी यह विरह की आग मुझे जलाकर राख बनाने पर तुली है। यह इस राख को भी उड़ा देना चाहता है अर्थात् मेरे अस्तित्व को मिटाने पर तुला है।
(घ) नागमती त्याग भावना को व्यंजित करने हुए कहती है कि पति के लिए मैं अपने शरीर को जलाकर राख बना देने को तैयार हूँ। पवन मेरे शरीर की राख को उड़ाकर ले जाए और मेरे पति के मार्ग में बिछा दे ताकि मेरा प्रियतम मेरी राख पर अपने पैर रख सके। इस प्रकार मैं भी उनके चरणों का स्पर्श पा जाऊँगी।
प्रथम दो छंदों में से अलंकार छाँटकर लिखिए और उनसे उत्पन्न काव्य-सौंदर्य पर टिप्पणी कीजिए।
प्रथम दो छंदों में आए अलंकार प्रथम पद
सियरि अगिनि बिरहिनि जिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
‘अग्न को सियरि ठंडी’ बताने में विरोधाभास अलंकार का प्रयोग है क्योंकि अग्नि शीतल नहीं होती।
दूभर दुख – अनुप्रास अलंकार
किमि काढ़ी – अनुप्रास अलंकार
घर-घर – पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
‘जिय जारा’ में अनुप्रास अलंकार है। (‘ज’ वर्ण की आवृत्ति)
‘सुलगि सुलगि’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
‘जरै बिरह ज्यौं दीपक बाती ‘ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
दूसरा पद –
बिरह सैचान (विरह रूपी बाज)-रूपक अलंकार (विरह को बाज के रूप में दर्शाया गया है।)
‘रकत ‘संख’ में अतिशयोक्ति अलंकार है। (वियोग की पीड़ा का बढ़-चढ़कर वर्णन है।)
‘सौर सुपेती,’ ‘बासर बिरह’ में अनुप्रास अलंकार है।
कंत कहाँ – अनुप्रास अलंकार
‘कॅपि काँप’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
पाठ में आए तत्सम और तद्भव शब्दों की सूची तैयार कीजिए।
तत्सम शब्द – तद् भव शब्द
दीपक – पीक
भँवरा – धुआँ
काग – सेज
चीर – हिय
वासर – सिंगार
कंत – साखा
रक्त – मारग
पवन – भैवर
विरह
किसी अन्य कवि द्वारा रचित विरह वर्णन की दो कविताएँ चुनकर लिखिए और अपने अध्यापक को दिखाइए।
(क) सूनी साँझ : शिवमंगल सिंह सुमन
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।
पेड़ खड़े फैलाए बाँहे
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूलि! साथ नहीं हो तुम।
कुलबुल कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह चहचह भीड़-भीड़ में
धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम।
जागी-जागी, सोई-सोई
पास पड़ी है खोई खोई
निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम।
(ख) मीराबाई
दरस बिन दूखण लागे नैण।
जब तें तुम बिछुरे प्रभु मोरे! कबहुँ न पायो चैण।
बिरह कथा का सूँ कहूँ सजनी! बह गई करवत ऐण।
कल न परत पल हरि मग जोवत, भई छ-मासी रैण।
मीरा के प्रभु! कब रे मिलोगे, दुःख-मेटण सुख दैण।
(ग) विद्यापति
अनुखन माधव माधव सुमिरइते, सुंदरि भेलि मधाई।
ओ निज भाव सुभाबहि बिसरल, अपनेहि गुन लुबुधाई।।
माधव, अपरुब तोहर सिनेह।
अपनेहि बिरहें अपन तनु जरजर, जिबइते भले संदेह॥
भोरहिं सहचरि कातर दिठि हेरु, छल-छल लोचन पानि।
अनुखन राधा राधा रटइत, आधा आधा बानि।।
राधा सँग जब पुन तहि माधब, माधब सँग जब राधा।
दारुन प्रेम तबहिं नहिं टूटत बाढ़त बिरहक बाधा।।
दुहुदिसि दारु-दहन जैसे दगधइ, आकुल कीट परान।
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि, कवि विद्यापति भान॥।
नागमती वियोग खंड’ पूरा पढ़िए और जायसी के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए।
विद्यार्थी इस खंड को पढ़कर जानकारी प्राप्त करें।
नागमति वियोग खंड
राजा रतसेन पद्मावती को पाने के लिए सिंहलद्वीप चला गया था। जब राजा बहुत दिनों तक नहीं लौटा तो उसे बहुत चिंता हुई। हीरामन तोते ने उसके पति को उससे छीन लिया। नागमती वियोग की पीड़ा में कृशकाय हो गई। वह पगला-सी गई और हर समय पी-पी पुकारती रहती थी। विरह में कामदेव का बाण उसके शरीर में इस प्रकार बिंध गया कि उससे निकले रक्त से उसकी चोली तक भीग गई। उसकी सखी उसे प्रमर का उदाहरण देकर पति के लौटने का विश्वास दिलाती है।
फिर बारहमासा वर्णन है। प्रत्येक मास अपनी-अपनी बारी से आता है और उस विरहिणी की व्यथा को और बढ़ा जाता है। नाममती ने रोते-रोते बारह महीने बिता दिए। फिर भी उसका पति नहीं लौटा तो उसने वन में रहना प्रारंभ कर दिया। वह पक्षियों के माध्यम से प्रिय तक संदेश भिजवाने का प्रयास करती है। नागमती जिस पक्षी के पास बैठकर अपनी विरह-व्यथा सुनाती है, वह वृक्ष और उस पर बैठा पक्षी जल जाता है। नागमती कोयल की भाँति चीख-चीख कर रोने लगती है। उसके नेत्रों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं। फिर भी वह स्वामी के लौटने की आशा मन में बनाए रखती है।
यह तन जारौं छार कै कहौं कि पवन उड़ाउ। मकु तेहि मारग होइ परौं कंत धरै जहँ पाउ
प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर जायसी ने नागमती की विरह-वेदना का अतिश्योक्तिपूर्ण चित्रण करते हुए कहा है कि वियोगारिन में अपने इस शरीर को जलाकर राख कर दूँगी। इस राख को पवन उड़ाकर ले जाए और मेरे प्रियतम के मार्ग में बिछा दे, ताकि मेरा प्रियतम उस राख पर अपने कदम रखकर चल सके। चलो, कम-से-कम मैं इस तरह तो उनका स्पर्श प्राप्त कर ही लूँगी। इस प्रकार कवि ने अतिश्योक्ति द्वारा अपनी विरह-वेदना का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। इन पंक्तियों में चौपाई छंद है, भाषा अवधी है और रस वियोग भृंगार है।
रकत ढरा आँसू गरा हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होड ररि मुई आइ समेटहु पंख।।
भाव-सौंदर्य : विरहिणी नायिका नागमती कहती है कि विरह के कारण मेरे शरीर का सारा रक्त ढर गया (बह गया). मेरे शरीर का सारा मांस गल चुका है और सारी हड्डियाँ शंख के समान हो गई हैं। मैं तो सारस की जोड़ी की भाँति प्रिय को रटती हुई मरी जा रही हूँ। अब में मरणावस्था में हूँ। अब तो मेरे प्रिय यहाँ आकर मेरे पंखों को समेट लें।
शिल्प-सौंदर्य :
नागमती की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्रण हुआ है।
अतिशयोक्ति अलंकार का प्रभावी वर्णन है।
‘सब संख’ में अनुप्रास अलंकार है।
भाषा अवधी है।
दोहा छंद है।
वियोग शृंगार रस है।
सयरि अगिनि बिरहिनि जिय जारा।
सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
यह दुख दगध न जानै कंतू।
जोबन जरम करै भसमंतू॥
पिय सौं कहेहु सँदेसरा ऐ भैवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहे जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग।।
इन पंक्तियों में अगहन मास में विरहिणी की दशा का मार्मिक अंकन किया गया है। इस मास की सियराती हवा विरहणी के हदय को ठंडक पहुँचाने के स्थान पर जलाती है। नायिका की जवानी प्रिय के वियोग में भस्म होती जा रही है। यहाँ नायिका भौरे और कौए को अपना संदेशवाहक दूत बनाती है और प्रिय तक संदेशा पहुँचाने का प्रयास करती है।
शिल्प सौंदर्य :
‘सिमरि सिमरि बिरहिनि जिय जारा’ में विरोधाभास अलंकार है।
अंतिम पंक्ति में अंतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग है।
‘सियरि सियरि’. ‘सुलगि सुलगि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
दुख दगध में अनुप्रास अलंकार है।
अवधी भाषा का प्रयोग है।
चौपाई दोहा छंद प्रयुक्त है।
सौर सुपेती आवै जूड़ी।
जानहूँ सेज हिवंचल बूढ़ी।
भाव-सौंदर्य : इन काव्य-पंक्तियों में पूस मास की भयंकरता तथा उसका प्रभाव वियोगिनी नायिका (नागमती) पर दर्शाया गया है। भयंकर शीत ने नायिका को जूड़ी चढ़ा दी है। उसकी सर्दी बिस्तर में जाने के बाद भी नहीं जाती। बिस्तर तो बर्फ में डूबा प्रतीत होता है।
शिल्य-सौंदर्य :
इस काव्यांश में उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग है क्योंकि उपमेय (सेज) में उपमान (हिवंचल) की संभावना प्रकट की गई है।
‘सौर सुपेती’ में अनुप्रास अलंकार है।
भाषा अवधी है।
चौपाई छंद का प्रयोग है।
वियोग श्रृंगार रस ।
बिरह सैचान भैवैं तन चाँड़ा।
जीयत खाइ मुएँ नहीं छाँड़ा ॥
भाव-सौंदर्य : इसमें नागमती की वियोग में मरणासन्न दशा का मार्मिक वर्णन है। विरह रूपी बाज (सैचान) एक ऐसा पक्षी है जो जीते हुए (जीवित) व्यक्ति का माँस खाता है। वैसे पक्षी मरे हुए व्यक्ति का माँस खाते हैं किंतु विरह संतप्त नागमती की दशा मरे हुए के समान हो गई है। उसी को कवि ने बाज के द्वारा खाया बताया है।
शिल्प-सौंदर्य :
‘विरह-सैचान’ (विरह रूपी बाज) में रूपक अलंकार का प्रयोग है।
विरह का मानवीकरण किया गया है।
वियोग की चरमावस्था है।
अवधी भाषा का प्रयोग है।
चौपाई छंद है।
पिय सौं कहेहु सँदेसरा, ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहे जरि गई, तेहिक घुआँ हम लाग॥
जायसी द्वारा रचित इस दोहे में कवि नागमती की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्रण करता है। नागमती भौंरा और काग से कहती है कि तुम जाकर मेरे पति को यह संदेश दे दो कि तुम्हारी पत्नी विरह की अगिन में जलकर मर गई । उसी आग से जो धुआँ निकला है, उसी से हमारा शरीर काला हो गया है।
नागमती की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है।
बारहमासा वर्णन के अंतर्गत अगहन मास के शीत का प्रभाव दर्शाया गया है।
संबोधन शैली का प्रयोग है।
भौंरा और काग को दूत बनाकर भेजा गया है।
अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग हुआ है।
भाषा-अवधी।
छंद -दोहा।
तन जस पियर पात भा मोरा।
बिरह न रहै पवन होइ झोरा।।
तरिवर ढरै ढरै बन ढाँखा।
भइ अनपत्त फूल फर साखा।
इस काव्यांश में जायसी ने फागुन मास में नागमती की विरह अवस्था का मार्मिक चित्रण किया है। फागुनी हवा झकझोर रही है। इस महीने में शीत लहर चलती है। विरहिणी नागमती को इसे सहना कठिन हो गया है। उसका शरीर पीले पत्तों के समान पीला पड़ गया है। विरह-पवन उसके शरीर को झकझोर रही है। इस मास में पेड़ों से पत्ते झड़ते जा रहे हैं। वे बिना पत्तों के हो गए हैं तथा वन ढाँखों के बिना हो गए हैं। फूल वाले पौधों पर नई कलियाँ आ रही हैं। इस प्रकार वनस्पतियाँ तो उल्लसित हो रही हैं पर नागमती की उदासी दुगुनी हो गई है।
नागमती के विरह की चरम सीमा व्यंजित हुई है।
नागमती के विरह में त्याग की भावना निहित है। वह पति के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देना चाहती है।
अलंकार – उपमाः तन जस….मोरा – रूपक : विरह-पवन – अनुप्रास : फूल फर
भाषा : अवर्धी ।
छंद : चौपाई-दोहा।
रस : वियोग श्रृंगार रस।
तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ के चहै उड़ावा झोल ॥
इस दोहे में विरहिणी नागमती की वियोगावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है। वह प्रियतम के अभाव में सूखकर काँटा हो गई है। उसका शरीर वृक्ष की भाँति हिल रहा है। इस पर भी विरह उसे जलाकर राख किए दे रहा है। वह उसे राख बना कर उड़ा देना चाहता है।
नागमती की विरह-वेदना अभिव्यक्त हुई है।
‘तनु तिनुवर’ में अनुप्रास अलंकार है।
अतिश्योक्ति अलंकार का भी प्रयोग है।
भाषा-अवधी।
छंद-दोहा।
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी।
कैसें जिऔं बिछोही पँखी।
बिरह सैचान भँवै तन चाँड़ा।
जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।
रकत ढरा आँसू गरा हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई आइ समेटहु पंख।
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में कवि जायसी ने जागमती की विरहावस्था का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया हैं पूस के महीने में भयंकर सर्दी पड़ रही है। उसका प्रियतम उसके पास नहीं है। भला वह एक बिछुड़े पक्षी की भाँति किस प्रकार जीवित रह पाएगी ? विरह रूपी बाज ने उसके शरीर पर नजर गड़ा रखी है। वह अभी तो जीते जी खा रहा है, मरने पर भी यह उसका पीछा छोड़ने वाला नहीं है। विरह के कारण उसका रक्त आँसुओं के माध्यम से बह गया है, आँख गल चुकी हैं, हड्डियाँ शंख के समान दिखाई दे रही हैं। अब तो वह मरणावस्था में है अतः वह पंखों को समेटने की प्रार्थना अपने प्रियतम से करती है।
शिल्प-सौन्दर्य :
नागमती की विरह-वेदना का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है।
प्रकृति का उद्दीपन रूप चित्रित हुआ है।
अलंकार : अनुप्रास : सब संख
रूपक : बिरह सैचान (विरह रूपी बाज)।
उत्प्रेक्षा : जान सेज हिवंचल बूढ़ी।
भाषा : अवधी।
छंद : चौपाई-दोहा।
रस : वियोग श्रृंगार रस।
लागेड माँह परै अब पाला।
बिरह काल भएउ जड़काला।
पहल पहल तन रुई जो झाँपै।
हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपै।
भाव-सौंदर्य – इन काव्य-पंक्तियों में माघ मास में विरहिणी नागमती की वियोगावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है। माघ मास की भयंकर सर्दी पड़ रही है, पाला भी पड़ रहा है। माघ मास का जाड़ा विरहिणी नायिका नागमती के लिए काल के समान बन गया है। वह अपने शरीर के प्रत्येक अंग को रूई से ढ़कने का प्रयास करती है, पर वे इस भयंकर जाड़े में अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। विरहिणी नागमती जाड़े के कारण बुरी तरह काँप रही है।
शिल्प-सौंदर्य –
‘बिरह काल’ में रूपक अलंकार है।
‘हहलि-हहलि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
वियोग शृंगार रस का परिपाक हुआ है।
भाषा अवधी है।
चौपाई छंद प्रयुक्त हुआ है।
नैन चुवहिं जस माँहुर नीरू।
तेहि जल अंग लाग सर चीरू।
भाव-सौंदर्य-जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ की नायिका नागमती विरहाग्नि में जल रही है। उसका पति रत्नसेन परदेश गया है। इस वियोगावस्था में नागमती की आँखों से आँसू ऐसे टपक रहे हैं जैसे माघ महीने में वर्षा का जल बरसता है। अश्रुओं की झड़ी के कारण उसके सारे कपड़े गीले हो गए हैं। इससे पानी उसके शरीर के अंगों से लग रहा है। उसे ये बूँदें बाण के समान प्रतीत होती हैं। कवि ने माघ मास में होने वाली वर्षा के प्रभाव का मार्मिक चित्रण किया है। इस ऋतु में शीत पराकाष्ठा पर होता है। इस मास में विरह-व्यथा असहनीय हो जाती है।
शिल्प-सौंदर्य –
‘नैन चुवहिं जस माँहुर नीरू’ में उपमा अलंकार है।
‘माहुँर’ शब्द माघ मास की वर्षा के लिए प्रयुक्त हुआ है।
चौपाई छंद् है।
वियोग थृंगार रस का परिपाक हुआ है।
रहस्यवाद में विरह का क्या स्थान है ?
सूफी प्रेममूलक रहस्यवाद में विरह की मार्मिक व्यंजना हुई है। जायसी ने भी नागमती के विरह-वर्णन में इसका चित्रण किया है। विरही प्रियतम (परमात्मा) के विरह में जलता भी है और काँपता भी है। यह विरह उसी परम सत्ता का है। यह लौकिक विरह नहीं है। यह प्रियतम तक पहुँचने का माध्यम है। सारी सृष्टि उसी परम तत्त्व में लीन होने को व्याकुल रहती है और अंततः उसी में मिल जाती है। जायसी ने रहस्यवाद के विभिन्न रूपों को विशेषकर साधनात्मक रहस्यवाद को अत्यंत सरस एवं मधुर बना दिया है।
पूस के महीने में विरहिणी की क्या दशा होती है?
पूस के महीने में भयंकर ठंड पड़ती है। इतनी सर्दी के कारण विरहिणी का पूरा शरीर थर-थर काँपता रहता है। इस मास में सूरज भी ठंड को दूर करने में समर्थ नहीं हो पाता क्योंकि वह दक्षिण दिशा में चला जाता है। विरहिणी अपने प्रियतम को इसलिए बुलाती है ताकि उसकी ठंड दूर हो सको।
फाल्गुन मास में जायसी की विरहिणी नायिका की वेदना-अनुभूति का वर्णन कीजिए।
फागुन मास की झकझोर देने वाली हवाएँ विरहिणी की विरहग्नि को और भी तीव्र कर देती हैं। उसका शरीर सूखकर पीले पत्ते की भाँति हो गया है। उसका शरीर पीला पड़ गया है।
माघ मास नायिका को कैसे व्यथित करता है?
माघ मास में पाला पड़ने लगता है। इसके साथ-साथ वर्षा और ओले भी पड़ने लग जाते हैं। ऐसे में नायिका की विरह-वेदना और अधिक बढ़ जाती है। वह अपने प्रियतम के विरह में व्यथित होकर रोने लगती है। उसे आभास होता है कि अब तो विरह रूपी अग्नि उसे जलाकर नष्ट कर देगी। वह निरंतर दुर्बल होती जाती है।
अगहन मास का नागमती के मन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
अगहन मास में अधिक सर्दी होती है इसलिए इस मास की शीतलता नागमती की विरह-वेदना को और अधिक बढ़ा देती है। इस मास में दिन छोटे तथा रातें लंबी होती हैं, इससे वियोग अधिक बढ़ जाता है। रातें लंबी होने के कारण नायिका अपने प्रियतम के वियोग में व्यथित हो जाती है।
होलिका दहन का नायिका पर क्या प्रभाव पड़ता है?
नायिका विरह से पीड़ित है। होलिका दहन देखकर उसे लगता है कि किसी ने उसके शरीर में आग लगा दी है। ऐसे में यदि उसका प्रिय साथ हो तो उसे कोई दुख नहीं होता। वह प्रिय के संग स्वयं को नष्ट करने में नहीं हिचकती।
नायिका क्या-क्या कामनाएँ करती हैं?
नायिका निम्नलिखित कामनाएँ करती हैं –
भौरै और कौवे अपने काले रंग का कारण नायिका के शरीर से उठे धुएँ को बताएँ।
वह चाहती है कि रत्नसेन रूपी सूर्य उसके शरीर को ताप पहुँचाए ताकि विरह रूपी शीत की ठिठुरन कम हो सके।
वह चाहती है कि उसके पंखों को प्रियतम समेटे।
वह अपने शरीर की राख को उस मार्ग पर बिछाना चाहती है जहाँ पर प्रियतम पैर रखते हैं।
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