NCERT for Class 12 Hindi Antara Chapter 9: Ghananand ke Kavit will provide a deep analysis and critical explanation of the poems written by the great poet Ghananand. The poetic style and themes of Ghananand are described in this chapter, wherein emotional touch and pictorial description are involved to shape human experiences. The solutions make comprehensive sense and explain the underlying meanings and cultural background to increase the reader's appreciation of Ghananand's work. The solutions also suggest answers to the textual questions, which will adequately help students in preparing for their exams.
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कवि ने ‘चाहत चलन ये संदेसो ले सुजान को’ क्यों कहा है ?
कवि अपनी प्रेयसी सुजान के दर्शन की अभिलाषा काफी समय से कर रहा है। वह आने का झूठा वायदा करती है और आती नहीं है। कवि इससे उदास हो जाता है। वह प्रतीक्षा करता-करता थक गया है। अब तो उसके प्राण निकलने को ही हैं। वे अधर तक आ गए हैं। वे अभी भी अटके हुए हैं। उनकी चाहत है कि निकलने से पहले वे सुजान का संदेशा ले लें अर्थात् सुजान के संदेश या आगमन की प्रतीक्षा में उसके प्राण अटके हुए हैं। इसीलिए कवि ने ऐसा कहा है।
कवि मौन होकर प्रेमिका के कौन से प्रण पालन को देखना चाहता है ?
कवि घनानंद मौन होकर प्रेमिका सुजान के उस प्रण-पालन (प्रतिज्ञा) को देखना चाहता है जो उसने पूर्व-काल में उससे प्रेम करते समय किया था। तब उसने उससे मिलते रहने का वादा करते हुए सदा-सदा के लिए उसके साथ बनी रहने की प्रण किया था। अब उसकी नायिका सुजान रूठ गई है और संभवतः अपना प्रण भूल बैठी है। अब वह उसकी ओर ध्यान नहीं देती। कवि ने भी मौन साध रखा है और वह इस मौन के माध्यम से उस घड़ी की प्रतीक्षा कर रहा है कि कब उसकी प्रेयसी प्रण का पालन करके उसके पास आती है।
कवि ने किस प्रकार की पुकार से ‘कान खोलि है’ की बात कही है ?
कवि ने अपनी पुकार से नायिका के कान खोलने की बात कही है-‘कबहूँ तो मेरियै पुकार कान खोलि है।’ कवि कहता है कि तुम कब तक कानों में रुई दिए रहोगी ? कब तक बहरे होने का ढोंग करती रहोगी ? कभी तो तुम्हारे कानों में मेरे दिल की आवाज पहुँचेगी और तुम्हारे कान खुलेंगे।
प्रथन सवैये के आधार पर बताइए कि प्राण पहले कैसे पल रहे थे और अब क्यों दुःखी हैं ?
प्रथम सवैये में बताया गया है कि पहले संयोगावस्था थी अतः कवि प्रेयसी को देखकर जीवित रहता था। तब उसके प्राण बड़े संतोष के साथ पल रहे थे। तब हुदय में संतोष रहता था। अब वियोगावस्था में उसके प्राण बड़े व्याकुल रहते हैं। वे बिलबिलाते हैं, दुःखी रहते हैं क्योंकि अब उसकी प्रेमिका सुजान उसके पास नहीं है। उसको सब कुछ फीका-फीका प्रतीत होता है।
घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताओं को अपने शब्दों में लिखिए।
घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
घनानंद की भाषा परिष्कृत और साहित्यिक ब्रजभाषा है।
घनानंद भाषा की व्यंजकता बढ़ाने में कुशल थे।
वे ब्रजभाषा प्रवीण तो थे ही, साथ ही सर्जनात्मक काव्य-भाषा के प्रणेता भी थे।
घनानंद की भाषा में लाक्षणिकता का समावेश है।
घनानंद अलंकारों के प्रयोग में अत्यंत कुशल थे। वे अनुप्रास, यमक, उपमा, वक्रोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग दक्षता के साथ. करते हैं।
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों की पहचान कीजिए-
(क) कहि कहि आवत छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को।
(ख) कूक भरी मूकता बुलाय आप बोलि है।
(ग) अब ना घिरत घन आनंद निदान को।
(क) पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार
(ख) विरोधाभास अलंकार
(ग) अनुप्रास, श्लेष।
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) बहुत दिनान की अवधि आसपास परे/खरे बरबरनि भरे है उठि जान को।
(ख) मौन हू सौं देखिहौं कितेक पन पालिहौ जूकूकभरी मूकता बुलाय आप बोलि है।
(ग) तब तो छबि पीवत जीवत है, अब सोचन लोचन जात जरे।
(घ) सो घनआनँद जान अजान लों ट्रक कियौ पर वाँचि न देख्यो।
(ङ) तब हार पहार से लागत हे, अब बीच में आन पहार परे।
(क) बहुत दिनों की अवधि आस में बीत गई। अब तो मेरे (कवि के) प्राण उठ जाने या निकल जाने की हड़बड़ी में हैं अर्थात् अब प्राण छूटने ही वाले हैं। अब उसकी जान पर बन आई है।
(ख) कवि मौन (चुप) होकर प्रिय के प्रण का निर्वाह देखना चाहता है। कूकभरी मौनता उसे कब बोलने पर विवश करती है। कवि की पुकार उसे बोलने के लिए विवश कर देगी।
(ग) संयोगकाल में कवि प्रिय सुजान को देखकर जीवित रहता था, तब उसके सौंदर्य की छवि का पान करता था। वियोगावस्था में अब उस स्थिति के सोचने से ही नेत्र जले जाते हैं। नेत्रों में अभी भी मिलन की प्यास बनी हुई है।
(घ) घनानंद ने अपने हृदय की बातों को प्रेमपत्र में लिखा, पर उस निष्ठुर सुजान ने अनजान बनते हुए उस पत्र को टुकड़े-टुकड़े कर दिया, पर पढ़कर नहीं देखा। उसने कवि के दिल को ही तोड़ दिया। उसकी भावनाओं को नहीं समझा।
(ङ) मिलन की घड़ी में नायिका के गले का हार पहाड़ के समान (बाधक) लगता था अब तो नायक-नायिका के बीच में वियोग रूपी पहाड़ ही खड़ा हो गया है अर्थात् दोनों का मिलन दूभर हो गया है।
संवर्भ सहित व्याख्या कीजिए-
(क) झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास है, कै चाहत चलन ये संदेसो लै सुजान को।
(ख) जान घनआँन यों मोहिं तुम्है पैज परी ………. कबहूँ तौ मेरियै पुकार वचन खोलि है।
(ग) तब तौ छबि पीवत जीवत है ……….. विललात महा दुःख दोष भरे।
(घ) ऐसो हियो हित पत्र पवित्र ……….. टूक कियौ पर न देख्यौ।
व्याख्या भाग देखें।
निम्नलिखित कवियों के तीन-तीन कवित्त और सवैया एकत्रित कर याद कीजिए-तुलसीदास, रसखान, पद्याकर, सेनापति।
तुलसीदास
1. दूलह राम, सिय दुलही री।
घन-दामिनि-बर बरन, हरन मन
सुंदरता नखसिख निबही, री।।
ब्याह-विभूषन-बसन-विभूषित,
सखि-अवली लखि ठगि सी रही, री।
ज़ीवन-जनम-लाहु लोचन-फल है इतिनोइ,
लह्यो आजु सही, री॥
सुखमा-सुरभि सिंगार-छीर दुहि,
मयन अमिय-मय कियो है दही, री।
मथि माखन सिय राम संवारे,
सकल-भुवन-छबि-मनहु मही, री।
तुलसीदास जोरी देखत सुख शोभा,
अतुल न जाति कही, री!
रूय रासि बिरजी बिरंचि मनो,
सिला लवनि रति काम लही, री।।
2. मन पछितैहें अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु करम बचन अरु ही ते॥
सहसबाहु, दसवदन आदि नृप बचे न काल बली ते।
हम हम करि धन धाम संवारे, अंत चले उठि रीते॥।
सुत, बनितादि जानि स्वारथ-रत न करु नेह सबही तें।
अंतहुं तोहिं तजैंगे, पामर! तू न तजै अबही तें।।
अब नाथाहिं अनुराग जागु जड़, त्याग दुरासा जी ते।
बुझै न काम-अंगिनि तुलसी कहुँ विषय-भोग बहु बी तें।।
3. खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सौं ‘कहाँ जाइ का करी’?
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरे कृपा करी।।
दारिद-दसानन दवाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।
सेनापति
ग्रीष्म
वृष कौ तरनि तेज सहसो किरन करि
ज्वालन के जाल बिकराल बरसत है।
तपति धरनि, जग जरत झरनि सीरी
छाँह कौं पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं।।
सेनापति नैक दुपहरी के ढरत होत
धमका विषम, ज्यौं न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौनौं सीरी ठौर कौ पकरि कौनों,
घरी एक बैठि कहूं घामें बितवत हैं।।
वर्षा
दामिनी दमक सोई मंद बिहसनी, बग –
माल है बिसाल सोई मोतिन कौ हारों है।
बरन-बरन घन रंगित बसन तन,
गरज गरूर सोई बाजत नगारौ है।।
सेनापति सावन कौ बरसा नवल वधु,
मानो है बराति साजि सकज सिगारौ है।
त्रिबिध बरन परयौ इंद्र कौ धनुष लाल
पन्ना सौं जटित मानौं हेम खगवारौ है।
शरव
कातिक की राति थोरी-थोरी सियराति,
सेनापति है सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं।।
उदित बिमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम कैसौ जस अंध ऊरध गगन हैं।
तिमिर हरन भयौ सेत हैं बरन सब,
मानहु जगत छीर-सागर मगन हैं।।
रसखान
मानुष हों तो वही ‘रसखानि’,
बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पशु हौं तो कहा बस मेरो,
चरौं नित नंद की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हों तो बसेगों करौं नित, कालिंदी कूल कदेंब की डारन।
गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू को कछू भाखत भनै नहीं।
कहै पद्याकर परोस पिछवारन कै
द्वारन के दौरि गुन औगुण गनें नहीं
तौ लौं चलि चतुर सहेली याहि कोऊ कहूँ,
नीके कै निचोरे ताहि करत मनै नहीं।
हों तो स्याम रंग में चुराइ चित चोरा चोरी,
बोरत तों बोर्यो पै निचोरत बनै नहीं।
पठित अंश में से अनुप्रास अलंकार की पहचान कर एक सूची तैयार कीजिए।
अनुप्रास अलंकार की सूची
घिरत घन आनंद निदान को
चाहत चलन’
पन पालिहौ..
टेक टरें”
जात जरें”
सुख साज समाज
पूरन प्रेम “
सोचि सुधारि
चारु चरित्र “
रचि राखिख
हियो हितपत्र
निम्नलिखित काव्यांशों में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
(क) अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान, चाहत चलन ये संदेसौ लै सुजान को।
कवि अपनी प्रिय सुजान की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से करता है। वह उसकी प्रतीक्षा करते-करते मरणासन्न दशा को पहुँच गया है। अब तो उसके प्राण अधर (होठों) तक आ लगे हैं। अब उसके प्राण प्रयाण करने ही वाले हैं अर्थात् वह मरने ही वाला है। पर उसके प्राण इसलिए अटके हुए हैं क्योंकि वे प्रिय सुजान का संदेशा लेकर ही निकलना चाहते हैं।
वियोगावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है।
वियोग श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है।
‘पयान प्रान’ तथा ‘चाहत चलन’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
ब्रजभाषा का माधुर्य झलकता प्रतीत होता है।
(ख) रुई विए रहौगे कहाँ लौं बहारायबे की ?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलि है।
कवि की प्रेयसी सुजान बड़ी निष्ठुर है। उसने कानों में रुई डाल रखी है अर्थात् कवि की बात अनसुनी कर देती है और बहरा बनने का नाटक करती है। कवि का विश्वास अभी तक टूटा नहीं है। उसे आशा है कि उसकी पुकार को नायिका लंबे समय तक अनसुनी नहीं कर पाएगी। उसे कान खोलने ही पड़ंगे। – ‘कानों में रुई दिए रहना ‘ तथा ‘कान खोलना’ मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।
उपालंभ शौली प्रयुक्त हुई है।
ब्रजभाषा का माधुर्य झलकता है।
(ग) तब हार पहार से लागत है,
अब आनि के बीच पहार परे।
कवि संयोगकालीन और वियोगकालीन अवस्थाओं के अंतर को अभिव्यक्त करता है। संयोगावस्था में नायिका सुजान के गले में पड़ा हार दोनों के मिलन (आलिंगन) में बाधक बनता था। अब वियोगावस्था में वियोग के पहाड़ आकर खड़े हो गए हैं।
‘हार पहार से’ – में उपमा अलंकार का प्रयोग है।
‘पहार’ में यमक अलंकार है।
‘पहार परे’ में ‘प’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
ब्रजभाषा का प्रयोग है।
शृंगार रस की व्यंजना हुई है।
(घ) सो घनआँव जान अजान लौं टूक कियो, पर बाँचि न वेख्यो।
कवि घनानंद् ने अपनी प्रिय सुजान को प्रेमपत्र लिखा और उसमें अपने दिल का हाल वर्णन किया पर निष्ठुर सुजान ने उस पत्र को पढ़कर भी न देखा और उसे फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इससे कवि का दिल टूट गया।
पत्र को टुकड़े-टुकड़े करना, कवि हृदय के टुकड़े-टुकड़े करना है।
इसमें प्रतीकात्मकता एवं लाक्षणिकता का समावेश है।
‘जान अजान’ में यमक अलंकार है।
ब्रजभाषा का प्रयोग है।
(ङ) कहि-कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को॥ झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास हवै कै, अब न घिरत घन आनँद निदान को। अधर लगे हैं आनि करि के पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसो ले सुजान को॥
कवि अपनी प्रिय सुजान की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से करता है। वह उसकी प्रतीक्षा करते-करते मरणासन्न दशा को पहुँच गया है। अब तो उसके प्राण अधर (होठों) तक आ लगे हैं। अब उसके प्राण प्रयाण करने ही वाले हैं अर्थात् वह मरने ही वाला है। पर उसके प्राण इसलिए अटके हुए हैं क्योंकि वे प्रिय सुजान का संदेशा लेकर ही निकलना चाहते हैं। – वियोगावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है।
वियोग श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है।
‘पयान प्रान’ तथा ‘चाहत चलन’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
त्रजभाषा का माधुर्य झलकता प्रतीत होता है।
(च) घन आनँद मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज-समाज टरे।
तब हार पहार से लागत हे, अब आनि कै बीच पहार परे।।
भाव-सौंदर्य : कवि संयोगकालीन और वियोगकालीन अवस्थाओं के अंतर को अभिव्यक्त करता है। संयोगावस्था में नायिका सुजान के गले में पड़ा हार दोनों के मिलन ‘आलिंगन’ में बाधक बनता था। अब वियोगावस्था में वियोग के पहाड़ आकर खड़े हो गए हैं। उसे अपनी प्रिय के बिना सभी सुख व्यर्थ के प्रतीत होते हैं।
शिल्प सौंदर्य :
‘हार पहर से’ में उपमा अलंकार का प्रयोग है।
‘पहार’ में यमक अलंकार है।
‘पहर परे’ में ‘प’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
‘सुख साज समाज’ में ‘अनुप्रास अलंकार’ है।
ब्रजभाषा का प्रयोग है।
शृंगार रस की व्यंजना हुई है।
वियोग के समय प्रेमी की हालत खराब हो जाती है। प्रथम सवैये के आधार पर बताइए।
कवि ने बताया है कि वियोग के समय प्रेम की दशा करूण हो जाती है। उसकी आँखें जलने लगती हैं। प्रेमी के बिना उसके प्राण तड़पने लगते हैं। समाज के सारे सुख निरर्थक लगते हैं तथा हर सुख अब मिलन में बाधक लगता है। उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है कि वह न मर पाता है और न जी पाता है। उसे लगता है कि प्रिय से मिलने की चाह में ही उसके प्राण अटके हुए हैं अन्यथा उसके प्राण कब के निकल गए होते।
घनानंद के ‘हियौ हित पत्र’ में क्या-क्या बातें थी और नायिका ने उसके साथ क्या व्यवहार किया ?
कवि अपने प्रेमपत्र का वर्णन करते हुए कहता है कि उसने अपनी प्रियतमा को, अपने हृदय रूपी प्रेमपत्र में, प्रेम की संपूर्णता का मंत्र पूरी प्रतिज्ञा के साथ बहुत सोच-विचार के साथ लिखा था। अर्थात् कवि ने बहुत सोच-समझकर अपनी प्रियतमा को एक प्रेमपत्र लिखा था। उसमें उसने उसके प्रति अपने एकनिष्ठ प्रेम की अभिव्यक्ति की थी। उस प्रेमपत्र में मंत्र जैसी पवित्रता और निश्छलता थी। पत्र बहुत सोच-विचार करके लिखा गया था। उस प्रेमपत्र में प्रियतमा के सुंदर चरित्र और अद्भुत कायो को परिश्रमपूर्वक लिखा गया था। इस प्रेमपत्र में प्रियतमा के अतिरिक्त किसी अन्य की बातों का उल्लेख तक नहीं था। कवि कहता है कि उसके हृदय रूपी पवित्र प्रेमपत्र को चतुर प्रियतमा ने बिना पढ़े ही अज्ञानियों की तरह फाड़कर, टुकड़े-टुकड़े कर दिए। आशय यह है कि प्रियतमा ने कवि के प्रेमपत्र को फाड़कर, उसके हुदय की भावनाओं की उपेक्षा कर, हृदय तोड़ दिया।
कवित्त में नायिका से कवि की क्या होड़ चल रही थी?
कवि नायिका सुजान से कहता है कि तुम कब तक मिलने में आनाकानी करती रहोगी। मुझमें और तुममें एक प्रकार की होड़ चल रही है। मैं तुम्हें मिलने के लिए पुकार रहा हूँ और तुम मेरी उस पुकार को सुनकर भी अनसुना किए जा रही हो। इस तरह हमारे बीच पुकारने और सुनने की होड़ चल रही है। देखता हूँ कि तुम कब तक अपने कानों में रूई डालकर बैठी रहोगी। तुम्हारे कानों तक कभी तो मेरी पुकार पहुँचेगी और तुम मिलने आओगी।
अंतिम सवैये में प्रेमिका ने कवि घनानंद के ह्रदय रूपी प्रेम-पत्र का क्या किया?
कवि घनानंद ने बताया है कि उसने पूर्ण प्रेम के महामंत्र की कसम को एक सूत्र में सुंदर बनाकर लिखा। उसने प्रयास से आराध्य सुजान के सुंदर चरित्र की रचना की। यह हृदय का पवित्र प्रेम-पत्र था जिसमें किसी अन्य की चर्चा नहीं थी, परंतु प्रेमिका ने उसे बिना पढ़े ही फाड़ दिया। कवि घनानंद सुजान से पवित्र प्रेम करते थे, परंतु सुजान ने कवि के प्रेम को महत्त्व नहीं दिया।
प्रथम कवित्त के भाव-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए।
इस कवित्त को विरह के चरमोत्कर्ष का उदाहरण माना जा सकता है। विरही कवि की सारी आशाएँ और सारे विश्वास विगलित हो गए हैं, प्राण अधरों से आ लगे हैं। वे अभी प्रयाण इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे चलते-चलते भी प्रिय का कुछ संदेश प्राप्त कर लेना चाहते हैं। बहुत दिनों तक आशा के व्यर्थ पाश में आबद्ध रहकर अब चलने को आतुर प्राण प्रिय की झूठी बातों पर विश्वास भी छोड़ चुके हैं। फिर भी उसका कुशल समाचार लेने के लिए रुके हुए हें। यदि प्रेमी को यह विश्वास हो जाए कि उसकी मृत्यु पर प्रिय के मुख से सहानुभूति का एक शब्द अवश्य निकलेगा तो वह जीने की अपेक्षा मृत्यु का वरण कर लेगा।
घनानंद के प्रेम के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
घनानंद ने काव्य में प्रेम का चित्रण ही नहीं किया है, अपितु वे जीवन में भी प्रेममार्ग के धीर पथिक रहे हैं। घनानंद का प्रेम स्वच्छंद प्रेम है। उनके प्रेम में प्रिय को देखने की अभिलाषा कभी समाप्त नहीं होती। वे कहते हैं-
‘भोर तें साँझ लौं कानन ओर, निहारति बावरी नेकु न हारति’ कवि प्रिय सुजान की निष्ठुरता को जानकर भी उसके प्रति एकनिष्ठ भाव से उन्मुख रहता है। स्वयं पीड़ा झेलकर भी प्रिय की मंगल-कामना करता है। प्रेमी एकनिष्ठ भाव से उसका मार्ग जोहता रहता है। कवि के जीवन का एकांतिक प्रेम उसका प्रेमादर्श रहा है। वह अपने प्रेम का प्रतिदान भी नहीं चाहता। घनानंद के प्रेम को निष्कामता की स्थिति तक पहुँचा हुआ वासना-विहीन प्रेम कहा जा सकता है।
घनानंद के कलापक्ष पर टिप्पणी लिखिए।
घनानंद ब्रजभाषा के प्रयोग में पारंगत थे। घनानंद ने सर्वत्र ब्रजभाषा के व्याकरण और शब्द-रूपों का ध्यान रखा है। घनानंद एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने लक्षणा और व्यंजना शब्द-शक्तियों का भरपूर प्रयोग किया है। लाक्षणिकता घनानंद की भाषा की प्रधान विशेषता है।
घनानंद ने अपनी काव्य-भाषा में मुहावरे-लोकोक्तियों का भी भरपूर प्रयोग किया है। उनका झुकाव लोकोक्तियों की अपेक्षा मुहावरों की ओर अधिक है-
– ‘गहि बाँह न बोरियै जू’ (बाँह पकड़कर डुबोना)
– ‘जान न कान करैं’ (ध्यान न देना।)
घनानंद अलंकारों के प्रयोग में भी सिद्धहस्त हैं।
अनुप्रास अलंकार घनानंद का प्रिय अलंकार है।
– कौौगे कौलौ, पैज परी
घनानंद ने यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा और विरोधाभास आदि अलंकारों का भी सटीक प्रयोग किया है।
श्लेष का भी बहुत प्रयोग हुआ है-जान, सुजान, घन, आनंद के घन आदि स्थलों पर श्लेष है।
घनानंद के सवैये के आधार पर पूर्ण प्रेम-पत्र की विशेषता बताइए। प्रेमिका ने उस प्रेम-पत्र के साथ क्या किया और क्यों ?
घनानंद ने अपनी प्रेयसी को प्रेमपत्र लिखकर भेजा। इस पत्र में उसने अपने पूर्ण प्रेम के महामंत्र को बहुत सोच-विचारकर और उसके श्रेष्ठ को याद, बड़े यल्नपूर्वक एक प्रेमपत्र अपनी प्रिया को लिखा। उसने इसमें थक-थक कर उसके सुंदर चरित्र की विचित्रता का गुणगान किया था। इसका उसने विशेष ध्यान रखा था। इस हृदय रूपी प्रेमपत्र में किसी अन्य कथा का कोई उल्लेख न था अर्थात् उसके रुष्ट होने का कोई कारण उपस्थित न था। ऐसी प्रेम कथा कही अन्यत्र नहीं लिखी गई थी। यह पवित्र प्रेमकथा थी लेकिन उस निष्ठुर जान अर्थात् सुजान (कवि की प्रेयसी) ने उस पत्र को पढ़कर भी नहीं देखा और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
कवि की प्रेयसी निष्ठुर थी। उसने पत्र को पढ़कर देखा तक नहीं।
घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
घनानंद के काव्य की भाषिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
घनानंद की भाषा ब्रजभाषा है। यह साहित्यिक और परिष्कृत ब्रजभाषा है।
उनकी काव्य-भाषा में कोमलता और माधुर्य गुण का समावेश है।
घनानंद भाषा की व्यंजकता बढ़ाने में अत्यंत कुशल हैं।
घनानंद ब्रजभाषा प्रवीण ही नहीं, सर्जनात्मक ब्रजभाषा के प्रणेता भी हैं।
घनानंद की भाषा में अनेक अलंकारों का सुंदर प्रयोग मिलता है। जैसे-अनुप्रास, रूपक, उपमा आदि अलंकार प्रयुक्त हुए हैं।
उनके प्रिय छंद हैं-कवित्त और सवैया।
घनानंद की भाषा विरह की मार्मिक अभिव्यक्ति करने में सक्षम है।
उनकी भाषा में लाक्षणिकता के दर्शन होते हैं।
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