NCERT Class 12 Hindi Antara Chapter 10 Premdhan ki Chayya Smriti throws light on the haunting memories of Premdhan whose biography alone underlines emotional depth and sensitivity. Summary The chapter is a peep into the personal, emotional world of Premdhan as he reflects upon love, its loss, and remembrance. In these solutions, an elaborate explanation about the text is given to make the students understand the underlying emotions and literariness in the text as written by the author. Students can study these solutions for a better understanding of the narrative style and thematic elements in the chapter.
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लेखक शुक्ल जी ने अपने पिता की किन-किन विशेषताओं का उल्लेख किया है ?
लेखक ने अपने पिता की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है : – पिताजी फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। – वे पुरानी हिंदी के बड़े प्रेमी थे। – उन्हें फारसी कवियों की उक्तियों को हिंदी कवियों की उवितयों के साथ मिलाने में बड़ा आनंद आता था। – वे रात के समय ‘रामचरितमानस’ और रामचंद्रिका’ ‘को घर के लोगों के सम्मुख बड़े चित्राकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे। – उन्हें भारतेंदु जी के नाटक बहुत पसंद थे। – वे लेखक की पढ़ाई को ध्यान में रखकर घर में आई पुस्तकों को छिपा देते थे।
बचपन में लेखक के मन में भारतेंदु जी के संबंध में कैसी भावना जगी रहती थी ?
बचपन में शुक्ल जी के मन में भारतेंदु जी के संबंध में एक अपूर्व मधुरता की भावना जगी रहती थी। उनकी आयु उस समय केवल आठ वर्ष की थी। उनकी बाल बुद्धि ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक के नायक राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में कोई भेद नहीं कर पाती थी। वे दोनों को एक ही समझते थे। हरिश्चंद्र शब्द से दोनों ही एक मिली-जुली भावना का अनुभव करते थे। उनके बारे में एक अपूर्व माधुर्य का संचार उनके मन में होता रहता था। जब उन्हें पता चला कि मिर्जापुर में भारतेंदु के एक मित्र रहते हैं तो उनके बारे में उत्कंठा जाग गई।
उपाध्याय बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ की पहली झलक लेखक ने किस प्रकार देखी ?
लेखक मिर्जापुर में नगर से बाहर रहते थे। वहीं उन्हें पता चला कि भारतेन्दु जी के मित्र उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ रहते हैं। – डेढ़ मील का सफर तय करके सभी बालक एक मकान के नीचे पहुँचे। – प्रेमघन से मिलने की योजना बनाई गई। कुछ उन बालकों को एकत्रित किया गया जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे। उन्हें आगे किया गया। – नीचे का बरामदा खाली था। ऊपर का बरामदा लताओं के जाल से आवृत्त था। – लेखक ने ऊपर की ओर देखा। काफी देर बाद लताओं के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई दी। – ये ही चौधरी प्रेमघन थे। उनके दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। – देखते ही देखते यह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। यही बदरीनारायण चौधरी की पहली झलक थी, जो लेखक ने देखी।
लेखक का हिंदी-साहित्य के प्रति झुकाव किस प्रकार बढ़ता गया ?
लेखक के घर में हिंदी का वातावरण तो बचपन से ही था। वह ज्यों-ज्यों सयाना होता गया, त्यों-त्यों हिंदी-साहित्य की ओर उसका झुकाव बढ़ता गया। जब वह क्वींस कॉलेज में पढ़ता था तब स्व. रामकृष्ण वर्मा उनके पिताजी के सहपाठियों में से एक थे। लेखक के घर में भारत जीवन प्रेस की पुस्तके आया करती थीं, पर पिताजी उन्हें इसलिए छिपा कर रखते थे कि कहीं बेटे का चित्त स्कूल की पढ़ाई से न हट जाए। उन्हीं दिनों पं. केदारनाथ पाठक ने एक हिंदी पुस्तकालय खोला था। लेखक वहाँ से पुस्तकें लाकर पढ़ा करता था। बाद में लेखक की पाठक जी के साथ गहरी मित्रता हो गई। 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते उसे समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की अच्छी-खासी मंडली मिल गई। इनमें प्रमुख थे-काशी प्रसाद जायसवाल, भगवानदास हालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर द्विवेदी आदि। इस मंडली में हिंदी के नए-पुराने लेखकों की चर्चा होती रहती थी। अब शुक्ल जी भी स्वयं को लेखक मानने लगे थे। इस प्रकार उनका झुकाव हिंदी-साहित्य के प्रति बढ़ता चला गया।
‘निस्संदेह’ शब्द को लेकर लेखक ने किस प्रसंग का जिक्र किया है ?
लेखक और उनके मित्रों की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती थी। इसमें ‘निस्संदेह’ शब्द प्राय: आया करता था। जिस स्थान पर लेखक रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तार, कचहरी के अफसर और कर्मचारी रहते थे। वे प्रायः उर्दू का प्रयोग करते थे। उनके उर्दू करनों में लेखक-मंडली की हिंदी बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी कारण उन लोगों ने इस लेखक-मंडली के लोगों का नाम ‘निस्संदेह’ रख छोड़ा था।
पाठ में कुछ रोचक घटनाओं का उल्लेख है। ऐसी तीन घटनाएँ चुनकर उन्हें अपने शब्दों में लिखिए।
पहली रोचक घटना : एक बार की बात है कि मिर्जापुर में एक प्रतिभाशाली कवि वामनाचार्य गिरि रहते थे। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण अभी रह गया था कि उन्हें बरामदे में चौधरी साहब कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खड़े दिखाई दिए। बस वामन जी का कवित्त इस पंक्ति के साथ पूरा हो गया- “खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।” (अर्थात् चौधरी साहब मुगल-रानी के समान लग रहे थे।)
दूसरी रोचक घटना : एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। उन्हें देखते ही सवाल पूछा-” क्यों साहब, एक लफ्ज (शब्द) मैं अक्सर सुना करता हूँ, पर उसका अर्थ ठीक से समझ में नहीं आया है। आखिर ‘घनचक्कर’ शब्द के क्या मानी है। उसके लक्षण क्या हैं ?” पड़ोसी महाशय तुरंत बोले- ” वाह, यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने से पहले कागज-कलम लेकर सवेरे से रात तक जो-जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।” (अर्थात् ऐसा व्यक्ति ही घनचक्कर होता है-व्यंग्य)
तीसरी रोचक घटना : एक बार गमी के दिनों में कई आदमी छत पर बैठकर चौधरी साहब से बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास एक लैम्प जल रहा था तभी लैम्प की बत्ती भभकने लगी। चौधरी साहब इसे बुझाने के लिए नौकरों को आवाज देने लगे। लेखक ने चाहा कि वह आगे बढ़कर बत्ती को नीचे गिरा दे पर पं. बदरीनारायण ने तमाशा देखने के विचार से लेखक को रोक दिया। चौधरी साहब कहते जा रहे थे- अरे, जब फूट जाई तबै चलत आवह” और अंत में चिमनी ग्लोब सहित चकनाचूर हो गई, पर चौधरी साहब का हाथ लैम्य की तरफ न बढ़ा।
“इस पुरातत्त्व की दृष्टि से प्रेम और कुतूल का अद्भुत मिश्रण रहता था।” यह कथन किसके संदर्भ में कहा गया है और क्यों ? स्पष्ट कीजिए।
यह कथन बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन के संदर्भ में कहा गया है।
लेखक का उनसे अच्छा परिचय हो गया था। अतः अब वह वहाँ एक लेखक की हैसियत से जाता था।
लेखक की मित्र-मंडली उन्हें एक पुरानी चीज समझती थी।
उनमें प्रेम और कौतूहल का अद्भुत मिश्रण रहता था। लेखक और उनके मित्र उन्हें महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मानकर उनके बारे में जानने को उत्सुक रहते थे।
प्रस्तुत संस्मरण में लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के किन-किन पहलुओं को उजागर किया है ?
प्रस्तुत संस्मरण में लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के निम्नलिखित पहलुओं को उजागर किया है :
– आकर्षक व्यक्तित्व
चौधरी साहब एक आकर्षक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे। उनके बाल कंधों पर बिखरे रहते थे। वे एक भव्य मूर्ति के समान प्रतीत होते थे। तभी वामनाचार्य जी ने उन्हें देखकर ‘मुगलानी नारी’ कहा था।
– रईसी प्रवृत्ति वाले
चौधरी साहब एक अच्छे-खासे हिंदुस्तानी रईस थे। उनकी हर अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। जब वे टहलते थे तब एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए उनके पीछे-पीछे लगा रहता था।
– उत्सव प्रेमी
चौधरी साहब के यहाँ वसंत पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर खूब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे।
– वचन-वक्रता
चौधरी साहब बात की काँट-छाँट करने में अनोखे थे। उनके मुँह से जो बात निकलती थी, उसमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग निराला होता था। नौकरों के साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था।
– प्रसिद्ध कवि
चौधरी साहब एक प्रसिद्ध कवि थे। उनका पूरा नाम था-उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’। उनके घर पर लेखकों की भीड़ रहती थी।
समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की मंडली में कौन-कौन से लेखक मुख्य थे ?
लेखक की समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की मंडली में निम्नलिखित लेखक मुख्य थे :
काशीप्रसाद जायसवाल
बा. भगवानदास हालना
पं. बदरीनाथ गौड़
पं. उमाशंकर द्विवेदी।
‘भारतेंदु जी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहुत शीघ्र गहरी मैत्री में परिणत हो गया।’कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
लेखक,एक बार एक बारात में काशी गया। वह घूमता हुआ निकला तो उसे पें, केदारनाथ पाठक दिखाई पड़े।
लेखक उनके पुस्तकालय में प्रायः जाया करता था, अतः पाठक जी लेखक को देखते ही वहीं खड़े हो गए। दोनों में वहीं बातचीत होने लगी। इसी बातचीत में मालूम हुआ कि पाठक जी जिस मकान से निकले थे वह भारतेंदु जी का ही घर था। लेखक बड़ी चाह और कुतूहल की दृष्टि से उस मकान की ओर देखता रहा। उस समय लेखक भावों में लीन था। पाठक जी लेखक की ऐसी भावुकता देकर बड़े प्रसन्न हुए। उन दिनों का यह हृदय-परिचय भारतेंदु के मकान के नीचे हुआ था, जो आगे चलकर शीघ्र ही गहरी मित्रता में बदल गया। वे दोनों गहरे मित्र बन गए।
हिंदी-उर्दू के विषय में लेखक के विचारों को देखिए। आप दोनों को एक ही भाषा की दो शैलियाँ मानते हैं या भिन्न भाषाएँ ?
लेखक हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करता है। उनका काल संक्रमण का काल था। गध में खड़ी बोली का आगमन हो रहा था अतः उस समय के सभी लेखक हिंदी-उर्दू शब्दों का एक समान प्रयोग करते थे। हम इन दोनों भाषाओं को अलग-अलग मानते हैं। हिंदुस्तानी की ये दोनों शैलियाँ हो सकती हैं, पर हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं में अंतर है। ये दोनों भिन्न भाषाएँ हैं।
चौधरी जी के व्यक्तित्व को बताने के लिए पाठ में कुछ मजेदार वाक्य आए हैं-उन्हें छाँटकर उनका संदर्भ लिखिए।
कुछ मजेदार वाक्य :
‘दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे ‘ : इस वाक्य से पता चलता है कि चौधरी साहब को लंबे बाल रखने का शौक था।
‘जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी।’ : इस वाक्य से पता चलता है कि चौधरी साहब बातचीत की कला में बड़े कुशल थे।
‘अरे जब फूट जाई तबै चलत आवत’ : इस वाक्य से पता चलता है कि वे घर में अपनी स्थानीय (देशज) भाषा में बात करते थे।
पाठ की शैली की रोचकता पर टिप्पणी कीजिए।
‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ पाठ की शैली रोचक है। सामान्यतः शुक्ल जी की शैली को काफी क्लिष्ट माना जाता है, किन्तु यह पाठ इस धारणा का अपवाद है। इस पाठ में लेखक ने रोचक शैली का अनुसरण किया है। पाठ में वर्णित विभिन्न घटनाएँ रोचक शैली में वर्णित की गई हैं। प्रेमघन जी के मुँह से जो बातें कहलाई गई हैं वे स्थानीय भाषा में हैं अतः रोचक हैं। लेखक अपने बारे में भी रोचक ढंग से बताता है। एक-दो स्थलों पर रोचक प्रसंगों का समावेश हुआ है।
भारतेंदु मंडल के प्रमुख लेखकों के नाम और उनकी प्रमुख रचनाओं की सूची बनाकर स्पष्ट कीजिए कि आधुनिक हिंदी गद्य के विकास में इन लेखकों का क्या योगदान रहा?
भारतेंदु मंडल के प्रमुख लेखक और उनकी प्रमुख रचनाएँ :
बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन – प्रेमघन सर्वस्व
बालमुकुंद गुप्त – देश प्रेम
प्रतापनारायण मिश्र – प्रेम पुष्पावली, मन की लहर
राधाचरण गोस्वामी – नवभक्तमाल
राधाकृष्ण दास – देशदशा
भारतेंदु हरिश्चंद्र – प्रेम मालिका, प्रेमसरोवर।
भारतेंदु युग (सन् 1850-1900 तक): िंदी निबंध को विकसित करने कां श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीन लेखकों को है। इस युग में बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ आदि प्रमुख थे। बालकृष्ण भट्ट ने विविध प्रकार के निबंध रचे। उनके निबंधों में ‘मेला-ठेला’, ‘ वकील’ (वर्णनात्मक), आँसू, सहानुभूति ( भावनात्मक), खटका, इंगलिश पढ़ें तो बाबू होय (हास्य-व्यंग्य) प्रसिद्ध हैं। भारतेंदु जी ने अनेक विषयों पर निबंध रचे; जैसे-कश्मीर कुसुम, कालचक्र, वैद्यनाथ धाम, हरिद्वार, कंकण स्तोत्र आदि। बालमुकुंद गुप्त ने ‘शिवशंभू के चिट्टे’ में हास्य-व्यंग्य की छटा बिखेरी है। प्रताप नारायण मिश्र ने भौं, दाँत, नमक, आदि पर निबंध लिखे। इस युग के निबंधों की विशेषताएँ इस प्रकार थीं :
(क) निबंधों के विषय विविधमुखी थे।
(ख) इन निबंधों में व्याकरण संबंधी दोष पाए जाते हैं।
(ग) इन निबंधों की भाषा में देशज एवं स्थानीय शब्दों का प्रयोग हुआ है।
(घ) इस युग के लेखन में देश-भक्ति, समाज सुधार की भावना है।
(ङ) इस युग में नवीन विचारों का स्वागत किया गया है।
आपको जिस व्यक्ति ने सर्वाधिक प्रभावित किया है, उसके व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताइए।
मुझे जिस व्यक्ति ने सर्वाधिक प्रभावित किया है, वह है-मैथिलीशरण गुप्त। उनके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं :
गुप्त जी भारतीय संस्कृति के अमर गायक हैं।
गुप्त जी के काव्य में सरलता है। ऐसा ही उनका सरल व्यक्तित्व था।
गुप्त जी ने नारी पात्रों का गौरव स्थापित किया, जैसे-उर्मिला, यशोधरा आदि का।
गुप्त जी का व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति के अनुरूप था।
उन्हें राष्ट्रकवि होने का गौरव प्राप्त हुआ।
उनकी भाषा सहज एवं सरल थी। इसे सभी पाठक आसानी से समझ लेते हैं।
गुप्त जी ने प्रचुर मात्रा में साहित्य-सृजन किया।
यदि आपको किसी साहित्यकार से मिलने का अवसर मिले तो उनसे क्या-क्या पूछना चाहेंगे और क्यों ?
हम साहित्यकार से निम्नलिखित प्रश्न पूछना चाहेंगे:
आपकी रचनाओं पर किस वाद का प्रभाव है ? अर्थात् आप किससे प्रभावित हैं ?
आप समाज-परिवर्तन में साहित्यकार की भूमिका को किस रूप में देखते हैं ?
साहित्य समाज का दर्पण है अथवा नहीं। यदि ‘है’ तो फिर साहित्यकार को करने के लिए क्या बचता है ?
साहित्यकार को राजनीति में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं ?
साहित्यकार बनने के लिए क्या करना होगा ?
संस्पंरण साहित्य क्या है ? इसके बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए।
संस्मरण : संस्मरण किसी दृश्य, घटना या व्यक्ति का भी हो सकता है। स्मृति के माध्यम से लेखक उन गुणों को रेखांकित करता है, जो जिदंगी जीने के लिए अनुकरणीय हैं। संस्मरण में लेखक का निजी व्यक्तित्व भी समाविष्ट हो जाता है।
हिंदी में, द्विवेदी युग में ‘सरस्वती’ मासिक पत्रिका के माध्यम से संस्परण प्रकाशित होने आरंभ हुए। ये संस्मरण अधिकांश प्रवासी भारतीयों ने लिखे हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामकुमार खेमका, जगतबिहारी सेठ, पांडुंग, प्यारेलाल, काशीप्रसाद जायसवाल, जगन्नाथ खन्ना आदि उल्लेख योग्य संस्मरण लेखक हैं।
इस पाठ में कई स्थलों पर हास्य-व्यंग्य के छींटे बिखेरे गए हैं। ऐसे दो प्रसंगों का उल्लेख कीजिए।
इस पाठ में हास्य-व्यंग्य के कई प्रसंग हैं। उनमें से दो का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है :
1. एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे कि इतने में एक पंडित जी आ गए। चौधरी साहब ने पूछा “कहिए क्या हाल है ?” पंडित जी बोले-” कुछ नहीं, आज एकादशी थी, कुछ जल खाया है और चले जा रहे हैं।” प्रश्न हुआ- “जल ही खाया है कि कुछ फलाहार भी पिया है ?”
2. एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल हुआ-” क्यों साहब, एक लफ्ज मैं अक्सर सुना करता हूँ, पर उसका ठीक अर्थ समझ में न आया। आखिर घनचक्कर के क्या मानी है। उसके क्या लक्षण हैं ?” पड़ोसी महाशय बोले-“वाह. यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने के पहले कागज-कलम लेकर सवेरे से रात तक जो-जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।”
मुसलमान सब-जज ने लेखक के बारे में क्या कहा?
लेखक के पिता की बदली मिर्जापुर में हो गई। उनके पड़ोस में मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक दिन लेखक के पिता तथा सब-जज आपस में बात कर रहे थे। तभी लेखक वहाँ से गुजरा तो लेखक के पिता ने कहा कि इन्हें हिंदी पढ़ने का बड़ा शौक है। सब-जज ने कहा कि आपको बताने की ज़रूरत नहीं। इनकी सूरत देखते ही मुझे इस बात का पता चल गया था।
‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ का कथ्य स्पष्ट कीजिए।
‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ में लेखक ने बताया है कि किस प्रकार उसका रूझान हिंदी भाषा तथा साहित्य की तरफ बढ़ा। उसका बचपन साहित्यिक परिवेश से परिपूर्ण था। उसने बचपन से ही भारतेंदु तथा उनके साथी रचनाकारों का सानिध्य पाया तथा साहित्य का रसास्वादन किया। प्रेमघन के व्यक्तित्व ने लेखक मंडली को किस प्रकार आकर्षित तथा प्रभावित किया, इसकी झाँकी भी यहाँ मिलती है।
‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ पाठ के आधार पर रामचंद्न शुक्ल की भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं। उनकी भाषा-शैली सरस, सजीव और भावानुकूल है। ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ नामक पाठ विवेचनात्मक शैली में है जिसमें व्यंग्य एवं विनोद का पुट है। उनका शब्द-चयन अत्यंत प्रभावशाली है। साहित्यिक खड़ी बोली में तत्सम शब्दावली का प्रयोग है। जगह-जगह उर्दू शब्दों का सहज प्रयोग है। उन्होंने भाषा की प्रवाहमयता बनाने के लिए देशज और तद्भव शब्दों से परहेज़ भी नहीं किया है। विचार-प्रधान सूत्रात्मक वाक्य-रचना उनकी गद्य-शैली की विशेषता रही है।
“प्रेमधन के सान्ििध्य में शुक्ल जी का साहित्यकार आकार ग्रहण करता है।” ‘प्रेमघन की स्मृति-छाया’ पाठ के आधार पर इस कथन की तर्कसम्मत पुष्टि कीजिए।
जब शुक्ल जी को प्रेमघन का सान्निध्य प्राप्त हुआ तो शुक्ल का साहित्यकार रूप आकार ग्रहण करता चला गया। प्रेमघन के व्यक्तित्व ने शुक्ल जी समवरूस्क मंडली को बहुत प्रभावित किया था। लेखक प्रेमघन से मिलने को बहुत उत्सुक था। परिचय होने के बाद शुक्ल जी का उनसे खासा परिचय हो गया। प्रेमघन के यहाँ शुक्ल जी एक लेखक के रूप में जाने पहचाने लगे। प्रेमघन के यहाँ साहित्यिक कार्यक्रम होते रहते थे। शुक्ल जी भी उनमें भाग लेते थे। शुक्लजी के हिंदी के प्रति झुकाव में प्रेमघन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
लेखक के मुहल्ले में किस प्रकार के सब-जज आए थे। लेखक के बारे में उनका क्या विचार था ?
लेखक के मुहल्ले में कोई मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक दिन लेखक के पिताजी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच लेखक उधर जा निकला। पिताजी ने उनका परिचय देते हुए उनसे कहा-” इन्हें हिंदी का बड़ा शौक है।” चट जवाब मिला-” आपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से ‘वाकिफ’ हो गया।” लेखक की सूरत में ऐसी क्या बात थी, यह वह इस समय नहीं कह सकता। यह आज से तीस वर्ष पहले की बात है। (अब तो और भी पुरानी हो गई)
लेखक शुक्लजी ने चौधरी साहब से परिचय हो जाने के बाद उन्हें कैसा पाया ?
जब लेखक के पिता की बदली हमीरपुर जिले की राठ तहसील से मिर्जापुर हुई, तब उनकी आयु केवल आठ वर्ष की थी। तब उनकी भारतेन्दु हरिश्चंद्र के प्रति विशेष भावना थी। उन्हीं के एक मित्र उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी वहीं रहते थे। एक दिन उनसे भेंट हो गई। चौधरी साहब से उनका अच्छा परिचय हो गया। बाद में उनका वहाँ जाना एक लेखक की हैसियत से होता था। पहले शुक्लजी उन्हें एक पुरानी चीज़ समझते थे, अतः कुतूहल मिश्रित जिज्ञासा बनी रहती थी।
लेखक ने चौधरी साहब को पाया कि वे एक खासे हिंदुस्तानी रईस हैं। उनके यहाँ वसंत पंचमी, होली आदि अवसरों पर नाच रंग और उत्सव हुआ करता था। उनकी हर अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। उनके बाल कंधे तक लटके रहते थे। एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए उनके पीछे-पीछे लगा रहता था। उनके मुँह से जो बाते निकालती थी, वे विलक्षण होती थीं। उनके वक्रता रहती थी। वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे। अन्य लोग भी उन्हें बनाने की फिक्र में रहते थे। वे नागरी को भाषा मानते थे।
16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते लेखक की हिंदी प्रेमी मंडली के बारे में बताइए।
जब लेखक रामचंद्र शुक्ल 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचे, तब उन्हें हिंदी-प्रेमियों की एक खासी मित्र-मंडली मिल गई। इस मित्र मंडली में काशी प्रसाद जायसवाल, भगवानदास हालना, पं० बद्रीनाथ गौड़, पं० उमाशंकर द्विवेदी प्रमुख थे। इस मंडली में हिंदी के नए-पुराने लेखकों के बारे में चर्चा बराबर होती रहती थी। तब तक शुक्ल भी स्वयं को एक लेखक मानने लगे थे। इन हिंदी-प्रेमियों की बातचीत प्रायः लिख्रने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती थी। इस बातचीत में ‘निस्संदेह ‘ शब्द का बहुत प्रयोग होता था। कुछ उर्दू प्रेमियों ने उन लोगों का नाम ‘निस्संदेह’ ही रख छोड़ा था।
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