NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antara Chapter 3 Ye Deep Akela - Maine Dekha Ek Boond discusses the themes of loneliness and existential rumination. These two poems by different authors offer a different vision regarding human feelings and the quest for the meaning of life. Ye Deep Akela is a metaphorical poem that explains man's loneliness and turmoil while comparing the man with a lamp that has been left alone. On the other hand, Maine Dekha Ek Boond is a philosophical poem in which the poetic persona has used the image of a drop of water to think over some key questions regarding being and identity. The answers have discussed these poems with their underpinning philosophy and literary importance.
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‘दीप अकेला’ के प्रतीकार्थ स्पष्ट करते हुए बताइए कि उसे कवि ने स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता क्यों कहा है ?
‘दीप अकेला’ कविता में ‘दीप’ व्यक्ति का प्रतीक है और ‘पंक्ति’ समाज की प्रतीक है। दीप का पंक्ति में शामिल होना व्यक्ति का समाज का अंग बन जाना है। कवि ने दीप को स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता कहा है। दीप में स्नेह (तेल) भरा होता है, उसमें गर्व की भावना भी होती है क्योंकि उसकी लौ ऊपर की ओर ही जाती है। वह मदमाता भी है क्योंकि वह इधर-उधर झाँकता भी प्रतीत होता है। यही स्थिति व्यक्ति की भी है। उसमें प्रेम भावना भी होती है, गर्व की भावना भी होती है और वह मस्ती में भी रहता है। दोनों में काफी समानता है।
‘यह दीप अकेला, पर इसको भी पंक्ति को दे दो’ के आधार पर व्यष्टि का समष्टि में विलय क्यों और कैसे संभव है ?
दीप-व्यक्ति का प्रतीक है और पंक्ति-समाज का। दीप को पंक्ति में स्थान देना व्यक्ति को समाज में स्थान देना है। यह व्यष्टि का समष्टि में विलय है। यह पूरी तरह संभव है। व्यक्ति बहुत कुछ होते हुए भी समाज में विलय होकर अपना और समाज दोनों का भला करता है। दीप का पंक्ति में या व्यष्टि का समष्टि में विलय ही उसकी ताकत का, उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है, उसके उद्देश्य एवं लक्ष्य का सर्वव्यापीकरण है।
‘गीत’ और ‘मोती’ की सार्थकता किससे जुड़ी है ?
‘गीत’ की सार्थकता उसके गायन के साथ जुड़ी है। गीत तभी सार्थक होता है जब लोग उसे गाएँ। गीत चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, पर जब तक कोई उसे गाएगा नहीं तब तक वह निरर्थक है। ‘मोती’ की सार्थकता उसके गहरे समुद्र से बाहर निकालकर लाने वाले गोताखोर के साथ जुड़ी है। समुद्र की गहराई में चाहे कितने भी कीमती मोती भरे पड़े हों, पर वह गोताखोर (पनडुब्बा) द्वारा बाहर निकालकर लाया जाता है, तभी वह मोती सार्थक बनता है अन्यथा वह निरर्थक बना रहता है।
‘यह अद्वितीय-यह मेरा-यह मैं स्वयं विसर्जित’-पंक्ति के आधार पर व्यष्टि का समष्टि में विलय विसर्जन की उपयोगिता बताइए।
कवि कहता है कि मनुष्य अकेला है, परंतु अद्वितीय है। वह अपने-आप काम करता है। वह व्यक्तिगत सत्ता को दर्शाता है। वह कार्य करता है और अपने अहं भाव को नष्ट कर देता है। वह समाज में खुद को मिला देता है तथा अपनी सेवाओं से समाज व राष्ट्र को मजबूत बनाता है। इसके अलावा अत्यंत गुणवान और असीम संभावनाओं से युक्त व्यक्ति भी समाज से अलग-अलग रहकर उन गुणों का न तो उपयोग कर पाता है और न समाज के बिना अपनी पहचान ही बना पाता है।
‘यह मधु है’ तकता निर्भय’-पंक्तियों के आधार पर बताइए कि ‘मधु’, ‘गोरस’ और ‘अंकुर’ की क्या विशेषता है ?
‘मधु’ की विशेषता यह है कि इसके उत्पन्न होने में युगों का समय लगा है। स्वयं काल द्वारा अपने टोकरे में युगों तक एकत्रित करने के पश्चात् मधु प्राप्त हुआ है। ‘गोरस’ की विशेषता यह है कि यह जीवन रूपी कामधेनु का अमृतमय दूध है। यह देव पुत्रों द्वारा पिया जाने वाला अमृत है। अंकुर की विशेषता यह है कि यह विपरीत परिस्थितियों में भी पृथ्वी को बेधकर बाहर निकलने के लिए उत्कंठित रहता है। यह सूर्य की ओर निडर होकर देखता है।
भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
(क) यह प्रकृत स्वयंभू “शक्ति को दे दो।
(ख) यह सदा द्रवित, चिर जागरूक”चिर अखंड अपनाया।
(ग) जिज्ञासु प्रबुद्ध सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो।
(क) कवि ने अंकुर को प्रकृत, स्वंभू और ब्रह्म के समान कहा है क्योंकि वह स्वयं ही धरती को फोड़कर बाहर निकल आता है और निर्भय होकर सूर्य की ओर देखने लगता है। इसी प्रकार कवि भी अपने गीत स्वयं बनाकर निर्भय होकर गाता है, अत: उसे भी सम्मान मिलना चाहिए।
(ख) दीपक सदा आग को धारण कर उसकी पीड़ा को पहचानता है परंतु फिर भी सदा करुणा से द्रवित होकर स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है। यह सदा जागरूक, सावधान तथा सबके साथ प्रेमभाव से युक्त रहता है। दीपक व्यक्ति का प्रतीक है।
(ग) दीपक को व्यक्ति के प्रतीक के रूम में चित्रित किया गया है। यह सदा जानने की इच्छ से भरपूर ज्ञानवान व श्रद्धा से युक्त रहा है। व्यक्ति भी इन सभी विशेषताओं से परिपूर्ण रहता है।
‘यह दीप अकेला’ एक प्रयोगवादी कविता है। इस कविता के आधार परं ‘लघु मानव’ के अस्तित्व और महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
दीपक अकेला जल रहा है। यह स्नेह से भरा हुआ है। यह अकेला होने पर भी, लघु होने पर भी काँपता नहीं है, गर्व से भरकर जलता है। दीपेक अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण अपने अकेलेपन में भी सुशोभित है, सार्थक है। उसका निजी वैशिष्ट्य समूह के लिए भी महत्वपूर्ण है। यदि आवश्यकता पड़े तो वह समाज के लिए अर्पित हो सकता है। वह बलपूर्वक आत्मत्याग के विरुद्ध है।
इस कविता में लघु मानव का अस्तित्च दर्शाया गया है। दीपक लघु मानव का ही प्रतीक है। उसका अपना विशेष अस्तित्व है। वह समाज का अंग होकर भी समाज से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। लघु मानव का अपना महत्त्व भी है। लघु मानव समाज का चुनाव अपनी इच्छा से करता है। इसे इस पर कोई बलात् लाद नहीं सकता।
कविता के लाक्षणिक प्रयोगों का चयन कीजिए और उनमें निहित सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
कविता के लाक्षणिक प्रयोग
यह दीप अकेला : इसमें ‘दीप’ व्यक्ति की ओर संकेत करता है। वह अकेला है।
जीवन-कामधेनु : कामधेनु के समान जीवन से इच्छित की प्राप्ति।
पंक्ति में जगह देना : समाज को अभिन्न अंग बनाना।
नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा : मानव लघु होने पर भी काँपता नहीं।
एक बूँन : लघु मानव।
सूरज की आग : आग-ज्ञान का आलोक, रागात्मक वृत्ति की ऊष्मा।
‘सागर’ और ‘बूँद’ से कवि का क्या आशय है ?
‘सागर’ से आशय समाज से है और ‘बूँद’ से कवि का आशय ‘व्यक्ति’ से है। एक छोटी-सी बूँद सागर के जल से उछलती है और पुन: उसी में समा जाती है। यद्यपि बूँद का अस्तित्व क्षणिक होता है, पर निरर्थक कतई नहीं होता।
‘रंग गई क्षण-भर, बलते सूरज की आग से’ पंक्ति के आधार पर बूँद के क्षण भर रंगने की सार्थकता बताइए।
बूँद सागर के जल से ऊपर उछलती है और क्षणभर के लिए ढलते सूरज की आग से रंग जाती हैं। वह क्षणभर में ही स्वर्ण की भाँति अप़नी चमक दिखां आती है। यह चमकना निरर्थक नहीं है। वह क्षणभर में ही सार्थकता दर्शा जाती है।
‘सूने विराट के सम्मुख ‘दाग से’-पंक्तियों का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
इन पंक्तियों का भावार्थ यह है कि विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से, नष्टशीलता के बोध से मुक्ति का अहसास है। यद्यपि यह विराट सत्ता शून्य या निराकार है तथापि मानव-जीवन में आने वाले मधुर मिलन के आलोक से दीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देते हैं। आलोकमय क्षण की स्मृति ही उसके जीवन को सार्थक कर देती है। कवि को खंड में भी विराट सत्ता के दर्शन हो जाते हैं। वह आश्वस्त हो जाता है कि वह अपने क्षणिक नश्वर जीवन को भी बूँद की भाँति अनश्वरता और सार्थकता प्रदान कर सकता है। उसकी स्थिति वैसी ही सात्विक है जैसी उस साधक की, जो पाप से मुक्त हो गया है।
‘क्षण के महत्त्व’ को उजागर करते हुए कविता का मूलभाव लिखिए।
इस कविता में क्षण का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इस कविता में कवि ने स्पष्ट किया है कि स्वार्थ के क्षुद्र बंधनों को तोड़कर व्यष्टि को समष्टि में लीन हो जाना चाहिए। जगत के सभी प्राणियों का दुःख-दर्द अपना है और उसे अपनाने का प्रयत्ल किया जाना चाहिए। संध्या के समय समुद्र में एक बूँद का उछलना और फिर उसी में विलीन हो जाना क्षण के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। यद्यपि बूँद का अस्तित्व बहुत कम समय के लिए था, फिर भी उसे निरर्थक नहीं कहा जा सकता। वह बूँद एक क्षण में ही अस्त होती सुनहरी किरण से चमक उठी थी। बूँद का इस तरह चमककर विलीन हो जाना आत्मबोध कराता है। यद्यपि यह विराट सत्ता निराकार है, फिर भी मानव जीवन में आने वाले मधुर मिलन के प्रकाश से प्रदीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देते हैं।
मानव और समाज’ विषय पर परिचर्चा कीजिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।
अज्ञेय की कविताएँ ‘नदी के द्वीप’ व ‘हरी घास पर क्षणभर ‘ पढ़िए और कक्षा की भित्ति पत्रिका पर लगाइए।
अज्ञेय की कविता ‘नदी के द्वीप’
हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
,कितु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।
और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते ?
रेत बनकर हम सलिल हो तनिक गंदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।
द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड में
वह बृहद् भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, संस्कार देती चलो। यदि एसा कभी हो-
तुम्हारे आह्ड़ाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे –
वह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल, प्रवाहिनी बन जाए –
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात: उसे फिर संस्कार तुम देना।
भारतीय दर्शन में ‘सागर’ और ‘बूँद’ का संदर्भ जानिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।
निम्नलिखित काव्यांशों में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
(क) यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म,
अयुतः इसको भी शक्ति दे दो
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता,
पर इसको भी पंक्ति दे दो।
(ख) सूने विराट के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से।
(ग) एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से,
रंग गई क्षण भर
ढलते सूरज की आग से।
मुझ को दीख गया
सूने विराद् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से !
(क) काव्य-सौंदर्य
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में कवि ने व्यक्ति के प्रतीक के रूप में दीपक को लिया है। यह बताया गया है कि यह दीपक प्रकृति के अनुरूप है, स्वाभाविक रूप से स्वयं उत्पन्न हुआ है। यह ब्रह्म अर्थात् सच्चिदानंद स्वरूप जगत का मूल है। यह ‘अयुतः’ अर्थात् सबसे पृथक अलग अस्तित्व वाला है।
दीपक के प्रतीक के द्वारा बताया गया है कि व्यक्ति अपने आप में परिपूर्ण एवं सर्वगुण संपन्न है, पर पंक्ति या समजज में विलय होने पर इसकी सार्थकता एवं उपयोगिता बढ़ जाएगी। यह उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है – व्यष्टि का समष्टि में विलय है, आत्मबोध का विश्व बोध में रूपांतरण है।
शिल्प-सौंदर्य :
इन पंक्तियों में दीप की उपमा अनेक वस्तुओं से दी गई है।
प्रतीकात्मकता का समावेश है। ‘दीपक’ व्यक्ति का तथा ‘पंक्ति’ समाज का प्रतीक है।
लाक्षणिकता का प्रयोग दर्शनीय है।
‘स्नेह’ शब्द में श्लेष अलंकार है।
तत्सम शब्दों का प्रयोग है।
(ख) काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में बताया गया है कि विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से नष्ट होने के बोध से मुक्ति का अहसास है। इसमें कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व को, क्षण भंगुरता को प्रतिष्ठापित किया है।
यद्यपि मानव जीवन में आने वाले मधुर-मिलन के आलोक से दीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देता है। आलोकमय क्षण की स्मृति ही उसके जीवन को सार्थक कर देती है। कवि को खंड में भी विराट सत्ता के दर्शन हो जाते हैं। वह आश्वस्त हो जाता है कि वह अपने क्षणिक नश्वर जीवन को भी बूँद की भाँति अनश्वरता और सार्थकता प्रदान कर सकता है।
शिल्प-सौंदर्य :
प्रतीकात्मकता का समावेश हुआ है।
‘बूँद’ और ‘सागर’ का प्रतीकात्मक प्रयोग हुआ है।
लघु मानव का महत्त्व दर्शाया गया है।
आलोक, उन्मोचन, नश्वरता जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।
(ग) भाव-सौंदर्य : कवि संध्या के अरुणिमा में समुद्र के झाग से उछली एक बूँद को देखता है। वह बूँद बाद में समुद्र में ही विलीन हो जाती है।
बूँद का इस प्रकार चमककर समुद्र में विलीन हो जाना कवि को आत्मबोध कराता है कि यद्यपि विराट सत्ता शून्य या निराकार है तथापि मानव जीवन में आने वाले मधुर मिलन के आलोक से दीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देते हैं। आलोकमय क्षण की स्मृति ही उसके जीवन को सार्थक कर देती है। कवि को खंड में भी सत्य का दर्शन हो जाता है। वह आश्वसत हो जाता है कि वह अपने क्षणिक नश्वर जीवन को भी बूँद की भाँति अनश्वरता और सार्थकता प्रदान कर सकता है। उसकी स्थिति वैसी ही सात्विक है, जैसी उस साधक की जो पाप से मुक्त हो गया है।
शिल्प सौंदर्य :
इस कविता में कवि ने क्षण के महत्त्व को, क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठित किया है।
यह कविता प्रयोगवादी शैली के अनुरूप है।
यह कविता प्रतीकात्मकता को लिए हुए है। इसमें ‘बूँद’ व्यक्ति का और ‘सागर’ समाज का प्रतीक है।
कवि ने व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा की है।
कवि पश्चिम के अस्तित्ववाद से भी प्रभावित है।
‘ढलते सूरज की आग’ में ‘आग’ का प्रयोग आलोक के अर्थ में साभिप्राय है।
अज्ञेय की कविता ‘मैंने देखा : एक बूँच’ का सार लिखते हुए इसके प्रतिपाद्य पर प्रकाश डालिए।
यह कविता केवल 9 छोटी-छोटी पंक्तियों में अतुकांत रूप से लिखी गई है। ऊपर से देखने पर लगता है कि कवि सागर-तट पर खड़े होकर संध्या काल के समय प्राकृतिक सौंदर्य का एक दृश्य देखता है जो अपनी शोभा और आकर्षण के कारण कवि के भावुक मन पर अमिट छाप छोड़ जाता है। सागर में फेनयुक्त लहरें उठ-गिर रही हैं तभी अचानक लहर के झाग को विदीर्ण करती हुई एक बूँद उछलती है, कवि उस उछलती बूँद को देखता है। सूर्यास्त का समय है। छिपते सूर्य की एक रंगीन चमकीली किरण उस उछलती’ बूँद पर पड़ती है और वह सूर्य-किरण की आभा से रंग जाती है।
बूँद उस स्वर्णिम आभा को प्राप्त कर अत्यंत रमणीय बन जाती है। कवि इस दृश्य को देखकर विस्मय विमुग्ध हो उठता है। तभी उसके मन में एक विचार कौंधता है। क्रोचे के शब्दों में सहज ज्ञान या प्रातिम ज्ञान (इंट्यूशन) बताता है कि यदि सामान्य व्यक्ति (बूँद) जो समाज (सागर) का अंश है, ईश्वर की परम सत्ता, विराट चेतना से प्रभावित होकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत को अपने जीवन में उतार लेता है तो वह साधारण से असाधारण, सामान्य साधक से ईश्वर का साक्षात्कार करने वाला साधक बन जाता है। उसके व्यक्तित्व में बूँद की तरह रूपांतर हो जाता है। वह दिव्य आत्मा बन जाता है। वह संसार के प्राणिमात्र में ईश्वर की सत्ता का दर्शन कर उसके प्रति आत्मीय बन जाता है। उनके सुख-दुःख का सहभागी बन जाता है और यही स्तिति मोक्ष है, काम्य है। हमको यही करना चाहिए।
‘यह दीप अकेला’ एक प्रयोगवादी कविता है। इस कविता के आधार पर ‘लघु मानव’ के अस्तित्व और महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
‘यह दीप अकेला’ एक प्रयोगवादी कविता है। प्रयोगवादी कविता की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें लघु मानव को प्रतिष्ठित किया गया है। जिस प्रकार एक-एक बूँद मिलकर सागर बन जाता है, उसी प्रकार बूँद का अपना अस्तित्व भी बना रहता है। जिस प्रकार एक छोटा-सा दीपक भी अंधकार को भेदने में सक्षम रहता है, उसी प्रकार लघु मानव भी स्वयं को प्रतिष्ठित करता है। लघु मानव विराट का एक अंश होते हुए भी उसका महत्त्व कम नहीं होता। इस कविता में लघु मानव का अस्तित्व दर्शाया गया है। दीपक लघु मानव का ही प्रतीक है। उसका अपना विशेष अस्तित्व है। वह समाज का अंग होकर भी समाज से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। लघु मानव का अपना महत्त्व भी है। लघु मानव समाज का चुनाव अपनी इच्छा से करता है। इसे इस पर कोई बलात् लाद नहीं सकता।
‘वह दीप अकेला’ कविता की “यह अद्वितीय-यह मेरा- यह मैं स्वयं विसर्जित” – पंक्ति के आधार पर व्यष्टि के समष्टि में विसर्जन की उपयोगिता बताइए।
व्यष्टि के समष्टि में विसर्जन से उसकी उपयोगिता और सार्थकता बहुत बढ़ जाती है। व्यक्ति सर्वगुण संपन्न होते हुए भी अकेला है। जब वह अपना विलय समाज (समष्टि) में कर देता है, तभी उससे उसका तथा समाज का भला होता है। यह उसकी व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ता है। इस रूप में व्यक्ति के गुणों का लाभ पूरे समाज को मिलता है। इससे समाज और राष्ट्र मजबूत होता है।
‘मैंने देखा एक बूँद’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
मैंने देखा एक बूँद कविता में असेय ने समुद्र से अलग प्रतीत होती बूँद की क्षणभंगुरता को व्याख्यायित किया है। यह क्षणभंगुरता बूँद की है, समुद्र की नहीं। बूँद क्षणभर के लिए ढलते सूरज की आग से रंग जाती है। क्षणभर का यह दृश्य देखकर कवि को एक दार्शनिक तत्व भी दीखने लग जाता है। विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से, नष्टीकरण के बोध से मुक्ति का अहसास है। इस कविता के माध्यम से कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व को, क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठापित किया है।
‘यह द्वीप अकेला’ कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि कवि ने दीप को ‘अकेला’ और ‘गर्वभरा मदमाता’ क्यों कहा?
‘दीप अकेला’ कविता में ‘दीप’ व्यक्ति का प्रतीक है और ‘पंक्ति’ समाज की प्रतीक है। दीप का पंक्ति में शामिल होना व्यक्ति का समाज का अंग बन जाना है। कवि ने दीप को स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता कहा है। दीप में स्नेह (तेल) भरा होता है, उसमें गर्व की भावना भी होती है क्योंकि उसकी लौ ऊपर की ओर ही जाती है। वह मदमाता भी है क्योंकि वह इधर-उधर झाँकता भी प्रतीत होता है। यही स्थिति व्यक्ति की भी है। उसमें प्रेम भावना भी होती है, गर्व की भावना भी होती है और वह मस्ती में भी रहता है। दोनों में काफी समानता है।
‘दीप अकेला’ के प्रतीकार्थ को स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि उसे कवि ने स्नेहभरा, गर्वभरा और मदमाता क्यों कहा है?
कवि ने ‘दीप अकेला’ को उस अस्मिता का प्रतीक माना है, जिसमें लघुता में भी ऊपर उठने की गर्वभरी व्याकुलता है। उसमें प्रेम रूपी तेल भरा है। यह अकेला होते हुए भी एक आलोक स्तंभ के समान है, जो समाज का कल्याण करेगा और अपने मदमाते गर्व के कारण सबसे भिन्न दिखाई देगा। ‘दीप अकेला’ कविता में ‘दीप’ व्यक्ति का प्रतीक है और ‘पंक्ति’ समाज की प्रतीक है। दीप का पंक्ति में शामिल होना व्यक्ति का समाज का अंग बन जाना है। कवि ने दीप को स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता कहा है। दीप में स्नेह (तेल) भरा होता है, उसमें गर्व की भावना भी होती है क्योंकि उसकी लौ ऊपर की ओर ही जाती है। वह मदमाता भी है क्योंकि वह इधर-उधर झाँकता भी प्रतीत होता है। यही स्थिति व्यक्ति की भी है। उसमें प्रेम भावना भी होती है, गर्व की भावना भी होती है और वह मस्ती में ही रहता है। दोनों में काफी समानता है।
‘मैंने वेखा एक बूँद’ कविता में कवि अज्ञेय ने किस सत्यता के दर्शन किए और कैसे?
कवि अज्ञेय ने देखा कि सागर की लहरों के झाग से एक बूँद उछली। उस बूँद को सायंकालीन सूर्य की सुनहरी किरणें आलोकित कर गईं, जिससे बूँद मोती की तरह झिलमिलाती हुई चमक उठी। कवि ने बूँद के उस क्षणिक स्वर्णिम अस्तित्व को उसके जीवन की चरम सार्थकता माना है। कवि आत्मबोध प्राप्त कर सोचता है कि यदि (वह) मनुष्य ऐसे स्वर्णिम क्षण परम सत्ता या ब्रह्न के प्रति समर्पित कर देता है तो वह परम सत्ता के आलोक से आलोकित हो उठता है और नश्वरता से मुक्ति पा जाता है। कवि ने इस सत्यता के दर्शन अपने सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति एवं आत्मबोध से प्राप्त किया।
क्षणभर के आलोक ने बूँद को किस तरह विशेष बना दिया? ‘मैंने देखा एक बूँद’ कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
अस्तगामी, सायंकालीन सूर्य की सुनहरी किरणें सागर के सीने पर छिटक रही थीं। उसी समय सागर की लहरों के झाग से एक बूँद उछली। इस बूँद पर सूर्य की सुनहरी किरण पड़ते ही बूँद मोती की तरह झिलमिलाने लगी। बूँद सुनहरे रंग में रंगकर अलौकिक चमक प्राप्त कर गई। यदि इस बूँद पर सायंकालीन सूर्य की किरणें न पड़तीं तो उसका अस्तित्व निखरकर सामने न आ पाता। इस प्रकार सूर्य की सुनहरी किरणों ने उसे विशेष बना दिया।
‘यह दीप अकेला’ के आधार पर व्यष्टि और समष्टि पर लेखक के विच्चारों पर टिप्पणी कीजिए।
व्यष्टि को समष्टि में विलय होना ही चाहिए क्योंकि व्यष्टि का समहह ही समष्टि का निर्माण करता है। व्यष्टि के समष्टि में शामिल होने से ही उसकी महत्ता और सार्थकता में वृद्धि होती है। व्यक्ति का मूल्यांकन समाज में ही संभव है। व्यक्ति के समाज में विलय होने से समाज मजबूत होता है और जब समाज मजबूत होगा तो राष्ट्र भी शक्तिशौली होगा। व्यष्टि का समष्टि में विलय तभी संभव हो सकता है जब समष्टि व्यष्टि के महत्व को स्वीकार करेगा।
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