NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antara Chapter 11 Sumirini Ke Manke. The whole chapter is based on self-introspection and meditation showing the right direction towards spiritual enlightenment. Solutions take the students through the intricate themes and metaphors used in the body of text, making the underlying messages more conceivable from within the poetry itself. Such solutions will further help the students get a feel for the spiritual and introspective dimensions of Hindi literature.
Students can access the NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antara Chapter 11: Sumirini Ke Manke. Curated by experts according to the CBSE syllabus for 2023–2024, these step-by-step solutions make Hindi much easier to understand and learn for the students. These solutions can be used in practice by students to attain skills in solving problems, reinforce important learning objectives, and be well-prepared for tests.
बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊूपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए ?
बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के निम्नलिखित प्रश्न पूछे गए : 1. धर्म के कितने लक्षण हैं ? उनके नाम बताइए। 2. रस कितने हैं ? उनके उदाहरण दीजिए। 3. पानी के चार डिग्री नीचे शीतलता फैल जाने का क्या कारण है ? 4. चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक कारण बताइए। 5. इंग्लैंड के राजा हेनरी आठवें की स्त्रियों (पत्नियों) के नाम बताइए। 6. पेशवाओं के शासन की अवधि के बारे में बताओ।
बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोक सेवा करूँगा ?
‘बालक बच गया’ लघु निबंध में एक आठ साल के बालक से बड़े-बड़े प्रश्नों के उत्तर पूछे जा रहे थे। बालक उनके सही उत्तर दे रहा था। अंत में जब उससे यह पूछा गया कि ‘तू क्या करेगा?’ तो बालक ने उत्तर दिया-” मैं यावज्जन्म लोक सेवा करूँगा।'” पूरी सभा उसका उत्तर सुनकर ‘वाह-वाह’ कर उठी, पिता का हुदय भी उल्लास से भर गया। अब प्रश्न उठता है कि बालक ने ऐसा उत्तर क्यों दिया ? बालक को शायद् अपने उत्तर का मतलब तक भी पता नहीं होगा। पर उसे जो कुछ सिखाया गया था, वही रटा-रटाया उत्तर बालक ने दे दिया।
बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी ?
लेखक देख रहा था कि बालक को अपने प्राकृतिक स्वभाव के अनुरूप बोलने नहीं दिया जा रहा था। उसे रटी-रटाई बातें कहने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था। उसे समय से पूर्व वह सब बताया जा रहा था जिसे वह जानता-समझता नहीं था। लेखक को बालक से किए गए प्रश्न और उनके रटे-रटाए उत्तर अस्वाभाविक लग रहे थे। अंत में जब बालक से उसकी इनाम लेने के बारे में इच्छा पूछी गई तब उसने बालकोचित वस्तु लट्ट् माँगा। इसे सुनकर लेखक को अच्छा लगा और उसने सुख की साँस ली, क्योंकि ऐसा माँगना बालक के लिए स्वाभाविक ही था।
बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है, पाठ में ऐसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोंटा जाता है ?
यह बात बिल्कुल सही है कि बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है। उसकी प्रवृत्तियों को सहज रूप से अभिव्यक्त होने देना चाहिए। तभी उसका पूर्ण विकास हो सकेगा। पाठ में ऐसा आभास निम्नलिखित स्थलों पर होता है कि बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटा जा रहा है। – जब बालक से ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं जिनको समझने और उत्तर देने की अभी उसकी आयु नहीं है। – बालक की दृष्टि भूमि से उठ नहीं रही थी अर्थात् वह भारी तनाव की स्थिति में था। – बालक की आँखों में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई साफ झलक रही थी।
“बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह ‘लड्ड्द’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं” कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
बालक से उसके शिक्षक जो कुछ कहलवा रहे थे, वह सब अस्वाभाविक था। बालक से जब वृद्ध महाशय ने इनाम में मनपसंद वस्तु माँगने को कहा, तब इसके द्वारा लड्डू माँगा जाना, उसकी-बाल सुलभ स्वाभाविकता को इंगित करता है। इससे लेखक को लगा कि अभी इस बालक के बचने की आशा है अर्थात् इसका बचपन बचाया जा सकता है। जिस प्रकार जीवित वृक्ष हरे पत्तों के माध्यम से अपनी जीवंतता का परिचय देता है उसी प्रकार बालक के लड्डू माँगने से उसकी स्वाभाविकता का पता चलता था। बालक को किसी स्वार्थवश नियमों के बंधन में बाँधने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्न धर्माचार्यों का ही काम है’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं ? धर्म संबंधी अपने विचार व्यक्त कीजिए।
धर्म का रहस्य जानना केवल वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम नहीं है, यह हमारा भी काम है। धर्म का प्रभाव हम सभी पर पढ़ता है और जिस बात का प्रभाव हम सभी पर पड़ता है उसको जानना हमारा अधिकार है। जब तक हम धर्म का रहस्य नहीं जानते तब तक ये धर्माचार्य हमें मूर्ख बनाते रहेंगे और हमारी अज्ञानता का लाभ उठाते रहेंगे। हमें धर्म के स्वरूप के बारे में जानना चाहिए। हमें यह भी समझना चाहिए कि क्या-क्या बातें धर्मानुकूल हैं और क्या बातें धर्म के प्रतिकूल हैं। धर्म आस्था का विषय है। धर्म के नाम पर शोषण नहीं किया जाना चाहिए। धर्म के बारे में हमारा अज्ञान ही हमारा शोषण करता है। ये तथाकथित धर्माचार्य धर्म के रहस्यों पर से परदा हटाने की बजाय उसको और अधिक रहस्यमय बना देते हैं ताकि वे अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे।
लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्जें का दृष्टांत क्यों दिया है ?
लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए घड़ी के पुर्जे का दृष्टांत इसलिए दिया है –
घड़ी पुर्जों के बलबूते पर चलती है और इसी प्रकार धर्म अपने नियम-कायदों पर चलता है।
जिस प्रकार हमारा काम घड़ी से समय जानना होता है, उसी प्रकार धर्म से हमारा काम धर्म के ऊपरी स्वरूप को जानना होता है। (धर्म के ठेकेदारों पर व्यंग्य)
आम आदमी को घड़ी की बनावट, उसके पुर्जों की जानकारी नहीं होती, उसी प्रकार आम आदमी को धर्म की संरचना को जानने की जरूरत नहीं है। उसे उतना ही जानना चाहिए जितना धर्मोपदेशक बताएँ।
इस दृष्टांत से लेखक ने यह बताना चाहा है कि धर्मोपदेशक धर्म को रहस्य बनाए रखना चाहते हैं ताकि वे लोगों को अपने इशारों पर चला सकें। वे केवल ऊपरी-ऊपरी बातें बताते हैं।
घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते ?
घड़ी समय का ज्ञान कराती है बशर्त कि हमें घड़ी में समय देखना आता हो। धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार भी अपने समय का बोध कराती हैं। धर्म की कोई भी मान्यता यह बताती है कि उस समय किस परिस्थिति में इसें स्वीकारा गया। धर्म के विचार भी अपने काल का बोध कराते हैं। इसके लिए हमें धर्म के रहस्य को जानना होगा। धर्म की मान्यताओं और विचारों को धर्माचार्य अपने ढंग से परिभाषित करते हैं और उनका वास्तविक स्वरूप आम लोगों के सामने नहीं आने देते।
घड़ीसाजी का इम्तहान पास करने से लेखक का क्या तात्पर्य है ?
घड़ीसाजी का इम्तहान पास करने से लेखक का यह तात्पर्य है कि वह घड़ी के कल-पुर्जां की पूरी जानकारी प्राप्त कर चुका है। वह घड़ी को खोलकर फिर से ठीक प्रकार से जोड़ सकता है। उसके हाथों में घड़ी पूरी तरह से सुरक्षित है। उसे घड़ी के बारे में कोई धोखा नहीं दे सकता। घड़ीसाज के माध्यम से लेखक हमें यह बताना चाहता है कि हमें धर्म के रहस्यों की पूरी जानकारी हासिल करनी चाहिए ताकि कोई हमें मूर्ख न बना सके। हमें धर्म का इम्तहान पास करना होगा। हमें भी धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझना चाहिए।
धर्म अगर कुछ विशेष लोगों, वेदशास्वज्ञ, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुडी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या संबंध होगा ? अपनी राय लिखिए।
धर्म अगर कुछ विशेष लोगों जैसे वेदशास्त्रजों, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में रहता है तो आम आदमी तो मूख्ख बनता रहेगा। धर्म के ये ठेकेदार आम आदमी को धर्म का वास्तविक रहस्य जानने ही नहीं देते। वे अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए धर्म को अपने कब्जे में रखते हैं। वे तो लोगों को उतना ही बताते हैं जितना वे चाहते हैं। धर्म के ये तथाकधित ठेकेदार आम आदमी और समाज को अपने पाखंड का शिकार बनाते हैं, धार्मिक अंधविश्वास फैलाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं धर्म के बारे में जानने का प्रयास करना चाहिए। धर्म पर किसी का एकाधिकार नहीं होना चाहिए।
‘जहाँ धर्म पर कुछ मुद्ठी भर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।
यह बात पूर्णतः सत्य है कि जब धर्म पर मुट्ठी भर लोगों का आधिपत्य हो जाता है तब धर्म संकुचित हो जाता है अर्थात् धर्म का स्वरूप सिकुड़ जाता है। धर्म के तथाकथित ठेकेदार धर्म का उपयोग अपने हित-साधन के लिए करते हैं। ये लोग धर्म को अपने तक सीमित रखते हैं। जब धर्म का संबंध आम आदमी के साथ जुड़ता है तब धर्म का विकास होता है और धर्म विस्तार पा जाता है। इसका अर्थ हुआ कि धर्म का संबंध आम लोगों से है। जब धर्म उनके साथ जुड़ जाता है तब वह विस्तार पा जाता है। धर्म को व्यापक बनाने के लिए उसे धर्माचार्यों के चंगुल से निकालकर सामान्य जन तक ले जाना होगा।
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘वेदशास्त्र, धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या ?’
(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।
(ग) ‘हमें तो धोखा होता है कि पड़दादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।
(क) वेदशास्त्रों को जानने वाले धर्माचार्य धर्म के ठेकेदार बनते हैं। वे ही धर्म के रहस्य को अपनी दृष्टि से हमें समझाते हैं। वे एक प्रकार से घड़ीसाज का सा काम करते हैं। उनका ऐसा करना उचित नहीं है। हमें भी धर्म की जानकारी होनी चाहिए। धर्म का संबंध हम सभी से है। हमें इन तथाकथित धर्माचायों को बेवजह इतना अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए।
(ख) यह ठीक है कि अनाड़ी आदमी घड़ी को बिगाड़ देगा, पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास करके आया है अर्थात् घड़ी का पूरा जानकार है, उसे घड़ी देने में कोई हर्ज नहीं है। इसी प्रकार की स्थिति धर्म की है। जो धर्म का जानकार नहीं है, उससे तो खतरा हो सकता है, पर जो धर्म की पूरी जानकारी रखता है, उसे तो धर्म की व्याख्या करने दो।
(ग) जिस प्रकार पुराने जमाने की घड़ी को जेब में डाले रहने पर यह भ्रम तो बना ही रहता है कि मेरे पास घड़ी है, चाहे वह बंद ही क्यों न हो। इसी प्रकार की स्थिति धर्म की भी है। हम धर्म के पुराने स्वरूप को लेकर इस भ्रम में रहते हैं कि हम धार्मिक हैं और धर्म के बारे में सब कुछ जानते हैं। इस स्थिति को सुधारने की आवश्यकता है।
(ग) ढेले चुन लो –
वैदिककाल में हिंदुओं में कैसी लाटरी चलती थी जिसका जिक्र लेखक ने किया है?
वैदिक काल में हिंदुओं में जो लाटरी चलती थी उसमें नर पूछता था और नारी को बूझना पड़ता था। नर स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के घर पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता था। पीछे वह कन्या के सामने मिट्टी के कुछ ढेले रख देता और उससे कहता कि इनमें से एक उठा लें। ये ढेले प्रायः सात तक होते थें। नर जानता था कि वह ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया है और इनमें किस-किस जगह की मिट्टी है। कन्या इनके बारे में कुछ जानती न थी। यही लॉटरी की बुझौवल थी। इन ढेलों में वेदी, गौशाला, खेत, चौराहे, मसान (श्मशान) की मिट्टी होती थी। यदि वह वेदी का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित, गोबर चुना तो पशुओं का धनी, खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार-पुत्र होगा। मसान की मिट्टी अशुभ मानी जाती थी। यदि किसी नर के सामने वह वेदी का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। इस प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी वरण करते थे।
‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए।
बबुआ हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं –
एक सोने की, दूसरी चाँदी की और तीसरी लोहे की। तीनों में से किसी एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। जो व्यक्ति स्वयंवर के लिए आता है उसे इन तीन पेटियों में से एक को चुनने के लिए कहा जाता है। अकड़बाज सोने की पेटी चुनता है और उसे उलटे पैरों लौटना पड़ता है। चाँदी की पेटी लोभी को अँगूठा दिखा देती है। सच्चा प्रेमी लोहे की पेटी को छूता है और घुड़दौड़ का पहला इनाम पाता है।
‘जीवन साथी’ का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं ?
जीवन साथी के चुनाव में मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के जो-जो फल प्राप्त होते हैं, वे इस प्रकार हैं :
यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित होगा।
यदि गोबर चुना तो पशुओं का धनी होगा।
यदि खेत की मिट्टी छू ली तो ‘जमींदार पुत्र’ होगा।
मसान की मिट्टी को हाथ लगाना अशुभ माना जाता था। यदि ऐसी नारी ब्याही जाए तो घर मसान हो जाएगा और वह जन्म भर जलाती रहेगी।
मिट्टी के छेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए-
पत्थर पूजै हरि मिलें तो तू पूज पहार।
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥
कबीर की इस साखी में बताया गया है कि पत्थर के पूजने से (मूर्ति पूजा से) भगवान नहीं मिलते। यदि पत्थर को पूजने से भगवान मिंल जायें तो मैं तो पहाड़ को पूजने लगूँ, पर यह व्यर्थ है। पत्थर का उपयोग तो आटा पीसने की चक्की में अच्छा होता है क्योंकि उसके आटे से लोगों का भोजन बनता है। यही बात मिट्टी के ढेलों पर भी लागू होती है। मिट्टी के ढेलों की बात भी एक ढोंग से बढ़कर कुछ नहीं है।
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों-करोड़ों कोस दूर बैठे बेड़े-बेड़े मिट्टी और आग के ढेलों-मंगल, शनिश्चर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है।
(ख) ‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।
(क) इस कथन में ढोंग-आडंबरों पर चोट की गई है। अपने द्वारा चुने गए मिट्टी के ढेलों पर इस प्रकार का विश्वास करना उचित नहीं है। यही स्थिति ग्रह चालों की है। हम मंगल, शनीचर और बृहस्पति की चाल की कल्पना करके अपने भाग्य का मिलान उसके साथ करते हैं। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। जिस जगह को आप जानते हैं वही ठीक है। दूर की काल्पनिक बातें व्यर्थ हैं।
(ख) यह कथन वात्स्यायन का है। जो चीज हैमारे हाथ में है वह उससे अधिक अच्छी है जिसकी हमें कले मिलने की संभावना है। संभव है वह चीज हमें हम कल मिले ही नहीं अतः वर्तमान में जीना बेहतर है। आज हमें कम पैसा मिल रहा है और कल काफी धन मिलने की संभावना है तो हाथ का पैसा ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
धर्माचार्यों का आम लोगों के प्रति क्या रुख होता है ?
धर्माचार्य स्वयं को धर्म का ठेकेदार मानते हैं। वे यह कतई नहीं चाहते कि आम आदमी धर्म के रहस्य को जानें। धर्म के रहस्य को वे स्वयं तक सीमित रखना चाहते हैं। उनके अनुसार धर्म के रहस्य को जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य को नहीं करनी चाहिए। उसे तो धर्म के बारे में उतना ही जानना चाहिए, जितना हम (धर्माचार्य) कहें या बताएँ। उनके कान में धर्माचार्य जो कुछ डाले, वहीं वह सुने और अधिक जानने की इच्छा न करे। इसी बात को लेखक ने घड़ी के दृष्टांत के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। घड़ी को ठीक करना, सुधारना घड़ी-साज़ का काम है, सामान्य व्यक्ति का नहीं। इसी धर्म का रहस्य बताना धर्माचायों का काम है, वे ही वेद-शास्त्र के ज्ञाता होते हैं। वे धर्म का रहस्य स्वयं तक सीमित करके रखना चाहते हैं। तभी समाज में उनकी पूछ बनी रह सकती है।
(ग) ढेले चुन लो –
वैदिककाल में हिंदुओं में कैसी लाटरी चलती थी जिसका जिक्र लेखक ने किया है?
1. समाज में धर्म संबंधी अंधविश्वास पूरी तरह व्याप्त है। वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में धर्म, विश्वास और आस्था पर निबंध लिखिए।
2. अपने घर में या आस-पास दिखाई देने वाले किसी रिवाज या अंधविश्वास पर एक लेख लिखिए।
(क) बालक बच गया –
(क) बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में ‘रटना’ बाधक है। कक्षा में संवाद कीजिए।
(ख) ज्ञान के क्षेत्र में ‘रटने’ का निषेध है किंतु क्या आप रटने में विश्वास करते हैं अपने विचार प्रकट कीजिए।
(क) ‘रटना’ बालक के स्वाभाविक विकास में रोड़ा अटकाता है। बच्चे की समझ बढ़नी अधिक आवश्यक है। उसे स्वयं समझने और अनुभव करने दीजिए। छात्र कक्षा में इस विषय पर संवाद करें।
(ख) हम रटने में विश्वास नहीं करते। रटने में हम अपने विवेक का प्रयोग नहीं करते, बल्कि रटकर सामग्री को उलट देते हैं।
(ख) घड़ी के पुर्जे –
(क) कक्षा में धर्म संसद का आयोजन कीजिए।
(ख) धर्म संबंधी अपनी मान्यता पर लेख/निबंध लिखिए।
(ग) ‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ धर्माचार्यों का काम नहीं कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है’-टिण्पणी कीजिए।
(क) विद्यार्थी कक्षा में धर्म संसद का आयोजन करें।
(ख) विद्यार्थी धर्म के बारे में अपने विचार लिखें।
(ग) यह कथन पूर्णतः सत्य है। धर्म पर किसी का एकाधिकार नहीं है। धर्म का संबंध सभी के साथ है। सभी को धर्म के रहस्य को जानने का अधिकार है। धर्माचायों का एकाधिकार समाप्त होना चाहिए।
धर्म और विज्ञान
चरमोन्नत जग में जब कि आज विज्ञान ज्ञान,
यह भौतिक साधन, यंत्र, वैभव, महान
सेवक हैं विद्युत, वाष्प शक्ति, धन बल नितांत
फिर क्यों जग में उत्पीड़न ? जीवन यों अशांत
वर्तमान युग में धर्म और विज्ञान के बीच जबरदस्त संघर्ष हो रहा है विज्ञान का प्रभाव आज विश्वव्यापी है। धीरे-धीरे लोगों में नास्तिकता आती जा रही है। इसका एकमात्र कारण है विज्ञान की उन्नति। आज से दो शताब्दी पूर्व जनता विज्ञान और वैज्ञानिकों को घृणा से देखती थी। उनका विचार था कि विज्ञान धार्मिक ग्रंथों के प्रतिकूल है। आज भी कुछ ऐसी विचारधारा जनता में है। मनुस्मृति में धर्म की परिभाषा इस प्रकार दी गई है
धृतिः क्षम दमोडस्तेयं शोचमिन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम्।
धैर्य, क्षमा, पवित्रता, आत्मसंयम, सत्य, अक्रोध आदि-आदि सदगुणों को धारण करना ही वास्तविक धर्म है। धर्म का उद्देश्य लोक कल्याण है। सच्चा धार्मिक व्यक्ति सम्पूर्ण संसार के कल्याण की कामना करता है।
धर्म और विज्ञान दोनों ने ही मानव जाति के उत्थान में पूर्ण सहयोग दिया है। धर्म ने मानव के हृदय को परिष्कृत किया और विज्ञान ने बुद्धि को। यदि मनुष्य इस समाज में सामान्य स्थान प्राप्त करके जीवनयापन कर सकता है, तो उसे सांसारिक सुख-शांति भी आवश्यक है। अत: संसार में धर्म और विज्ञान दोनों ही मानव कल्याण के लिए आवश्यक तत्व हैं।
धर्म मानव हृदय की उच्च और पवित्र भावना है। धार्मिक भावना से मनुष्य में सात्विक प्रवृत्तियों का उदय होता है। धर्म के लिए मनुष्य को शुभ कर्म करते रहना चाहिए और अशुभ कार्यों को त्याग देना चाहिए। धार्मिक मनुष्य को भौतिक सुखों की अवहेलना करनी चाहिए। वह कर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता। हिंदू धर्म के अनुसार मनुष्य की आत्मा अमर है और शरीर नाशवान है। मृत्यु के पश्चात् भी मनुष्य अपने सूक्ष्म शरीर से अपने किए हुए शुभ और अशुभ कमों का फल भोगता है। धार्मिक लोगों का विचार है कि इस अल्प जीवन में सुख भोगने की अपेक्षा पुण्य कार्य करना चाहिए।
जो धर्म समाज को उन्नति की ओर ले जा रहा था, वह अंधविश्वास और अंध श्रद्धा में ढलकर पतन का कारण बन गया। अंधविश्वास के अंधकार से निकलकर मानव ने बुद्धि और तर्क की शरण ली। लोगों में आँखों देखी बात या तर्क की कसौटी पर कसी हुई बात पर विश्वास करने की प्रवृत्ति जागृत हुई। विज्ञान की भी मूल प्रवृत्ति यही है, धर्मग्रंथों में लिखी हुई या उपदेशों द्वारा कही हुई बात को वह सत्य नहीं मानता, जब तक कि नेत्रों के प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा तर्क सिद्ध न हो जाए।
धर्म की आड़ लेकर जो अपने स्वार्थ साधन में संलग्न थे, उनके हितों को विज्ञान से धक्का पहुँचा, वे वैज्ञानिकों के मार्ग में विघ्न उपस्थित करने लगे, “उघरे अंत न होई निबाहू “। अब धर्म के बाह्य आडंबरों की पोल ख़ुल गई तो जनता सत्य के अन्वेषण में प्राणप्रण से लग गई। जो सुख और समृद्धि धार्मिकों की स्वर्गीय कल्पना में थे, उन्हें वैज्ञानिकों ने अपनी खोजों से इस संसार में प्रस्तुत कर दिखाया। धर्म ईश्वर की पूजा करना था, विज्ञान ने प्रकृति की उपासना की। विज्ञान ने पाँचों तत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) को अपने वश में किया। उसने अपनी रचचि के अनुसार भिन्न-भिन्न सेवायें लीं, इस प्रकार मानव ने जीवन और जगत को सुखी और समृद्ध बना दिया। वैज्ञानिकों ने अपने अनेक आश्चर्यजनक परीक्षणों से जनता में तर्क बुद्धि उत्पन्न करके उनके अंधविश्वासों को समाप्त कर दिया। आज के वैज्ञानिक मानव ने क्या नहीं कर दिखाया।
यह मनुज,
जिसका गगन में जा रहा है यान
काँपते जिसके करों को देखकर परमाणु।
खोल कर अपना ह्ददय गिरि, सिंधु, भू, आकाश,
है सुना जिसको चुके निज गूढ़तम इतिहास।
खुल गये परदे, रहा अब क्या अज्ञेय
किंतु नर को चाहिये नित विघ्न कुछ दुर्जेय।
धर्म का स्वरूप विकृत होकर जिस प्रकार बाह्माडंबरों में परिवर्तित हो गया था, उसी प्रकार विज्ञान भी अपनी विकृति की ओर है। विज्ञान ने जब तक मानव की मंगल कामना की, तब तक वह उत्तरोत्तर उन्नतिशील रहा। जो विज्ञान मानव-कल्याण के लिए था, आज उसी से मानवता भयभीत है। परमाणु आयुधों के विध्वंसकारी परीक्षणों ने समस्त मानव जगत को भयभीत कर दिया है। धर्म के विस्तृत स्वरूप ने जनता को मूर्खता की ओर अग्रसर किया था, विज्ञान का दुरुपयोग जनता को प्रलय की ओर अग्रसर कर रहा है।
वर्तमान समय में लोगों ने धर्म और संप्रदाय को एक मान लिया है। सांप्रदायिक बुद्धि विनाश का रास्ता दिखाती है। यह ऐसी प्रतिगामी शक्ति है जो हमें पीछे की ओर धकेलती है। मानव को इस प्रवृत्ति से बचना है। अपने-अपने धर्मों का पालन करते हुए भी हमें टकराव की स्थिति उत्पन्न होने नहीं देनी चाहिए। मानव धर्म को स्वीकार कर लेने से सभी शांतिपूर्वक रह सकेंगे। धर्म के नाम पर हमारे देश का पहले ही विभाजन हो चुका है, अब हमें इसे और विभाजित करने के प्रयास नहीं करने चाहिए।
मानव को वर्तमान युग की माँग की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। समस्त विश्व के मानव हमारे भाई हैं, यही भाव विकसित करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। धर्म कभी संकुचित दृष्टिकोण अपनाने के लिए नहीं कहता, अपितु वह तो हमें विशालता प्रदान करता है।
धर्म को लोगों ने धोखे की दुकान बना रखा है। वे उसकी आड़ में स्वार्थ सिद्ध करते हैं। कुछ लोग धर्म को छोड़कर संप्रदाय के जाल में फँस रहे हैं। ये संप्रदाय बाह्य कृत्यों पर जोर देते हैं। ये चिह्नों को अपना कर धर्म के सार-तत्व को मसल देते हैं। धर्म मनुष्य को अंतर्मुखी बनाता है, उसके हृदय के किवाड़ों को खोलता है, उसकी आत्मा को विशाल बनाता है। धर्म व्यक्तिगत विषय है।
धर्म के नाम पर राजनीति करना अत्यंत घृणित कार्य है। सरकार भी धर्म को राजनीति से पृथक् करने का कानून बनाने पर विचार कर रही है। हमारे संविधान में प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई है। प्रत्येक मानव को अपने विश्वास के अनुसार धर्म अपनाने की पूरी छूट है।
जब बच्चे को पुरस्कार माँगने को कहा गया तो बच्चे के भावों में क्या परिवर्तन आया?
जब बच्चे को कहा कि वह अपनी इच्छा से कुछ भी माँग ले। इस पर बालक सोचने लगा। पिता और अध्यापकों की सोच थी कि वह पुस्तक माँगेगा। बच्चे के मुख पर रंग बदल रहे थे। उसके हदयय में कृत्रिम तथा स्वाभाविक भावों में पढ़ाई हो रही थी जो आँखों में स्पष्ट झलक रही थी। अंत में उसने लड्डू माँगा। यहाँ बालक के स्वाभाविक भावों ने कृत्रिम भावों पर विजय प्राप्त कर ली और कृत्रिम भाव दबकर रह गए।
‘बालक बच गया’ पाठ का उद्देश्य बताइए।
‘बालक बच गया’ निबंध का मूल प्रतिपाद्य है-शिक्षा ग्रहण की सही उम्रे। लेखक मानता है कि हमें व्यक्ति के मानस के विकास के लिए शिक्षा को प्रस्तुत करना चाहिए, शिक्षा के लिए मनुष्य को नहीं। हमारा लक्ष्य है मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखना। मनुष्य बचा रहेगा तो वह समय आने पर शिक्षित किया जा सकेगा। लेखक ने अपने समय की शिक्षा-प्रणाली और शिक्षकों की मानसिकता को. प्रकट करने के लिए अपने जीवन के अनुभव को हमारे सामने अत्यंत व्यावहारिक रूप में रखा है। लेखक ने इस उदाहरण से यह बताने की कोशिश की है कि शिक्षा हमें बच्चे पर लादनी नहीं चाहिए, बल्कि उसके मानस में शिक्षा की रूचि पैदा करने वाले बीज डाले जाएँ, ‘सहज पके सो मीठा होए’।
‘समय पूछ लो और काम चला लो’ में निहित संदेश को आप समाज के लिए कितना उपयोगी मानते हैं?
‘समय पूछ लो और काम चला लो’ के माध्यम से धर्माचार्यों ने समाज में यह धारणा फैला रखी है कि आम आदमी को धर्म के रहस्य जानने का अधिकार नहीं है। वे बनाए गए नियमों तथा विश्वासों का आँख मूँदकर पालन करें। यह ध रणा समाज के लिए जरा भी उपयोगी नहीं है। ऐसा कहकर वे धर्म का तथाकथित ठेकेदार बने रहना चाहते हैं। वे अपनी रोज़ी-रोटी चलाने और दूसरों को मूर्ख बनाए रखने के लिए ऐसा करना चाहते हैं।
‘बेले चुन लो’ का प्रतिपाद्य बताइए।
‘ढेले चुन लो’ में लोक विश्वासों में निहित अंध विश्वासी मान्यताओं पर चोट की गई है। लेखक ने जीवन में बड़े फैसले अंधविश्वासों के वशीभूत होकर न लेने के लिए कहा है। अंधविश्वास के वशीभूत होकर लिए गए फैसले हितकारी ही होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। फिर ऐसा करके अँधेरे में तीर क्यों चलाया जाए। मनुष्य को यथार्थ स्वीकार करते हुए यथार्थवादी होकर अपने फैसले लेने चाहिए।
धर्माचार्य का धर्म के संबंध में आम लोगों के प्रति जो रूख रहा है उसे स्पष्ट करते हुए बताइए कि आपकी दृष्टि में यह कितना उचित है।
धर्माचार्य चाहते थे कि आम मनुष्य धर्म के बारे में उतना और वही जाने जितना वे सही या गलत अपनी सुविध नुसार बताना चाहते हैं। वे नहीं चाहते थे कि धर्म के बारे में कोई और गहराई से जाने-समझे, इसे वे अपनी तथाकथित प्रभुसत्ता के लिए खतरा मानते थे। वे वेद-शास्त्रों को अपने तक ही सीमित रखना चाहते थे। उनके अनुसार आम आदमी को यह सब जानने का कोई हक नहीं है। उनके इस दृष्टिकोण को मैं पूर्णतया अनुचित मानता हूँ, क्योंक वेद-शास्त्र तथा धार्मिक ग्रंथ किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं लिखे गए हैं।
पाठशाला के वार्षिकोत्सव में क्या हुआ ?
पाठशाला के वार्षिकोत्सव में लेखक भी गया था। वहाँ प्रधान अध्यापक के आठ वर्षीय पुत्र की बुद्धि की नुमाइश की गई थी। उसे सबसे अधिक बुद्धिमान बताकर पेश किया गया। इसकी जाँच के लिए उससे वे प्रश्न पूछे गए जिनके उत्तर उसे पहले ही रटा दिए गए थे। बालक न तो उन प्रश्नों को समझता था और न उत्तरों को जानता था। फिर भी उसने सभी प्रश्नों के उत्तर उगल दिए। उससे ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछे गए जो उसकी आयु वर्ग के लिए व्यर्थ थे। बालक रटे हुए उत्तर दे रहा था। लेखक को यह अच्छा नहीं लग रहा था। हाँ, जब बालक ने इनाम में लट्टू माँगा तब वह प्रसन्न हुआ, क्योंकि यह बालक की स्वाभाविक इच्छा का परिचायक था।
‘ढेले चुन लो’ प्रसंग में किस नाटक का उल्लेख है और क्यों ?
इस प्रसंग में शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक मर्चैट ऑफ वेनिस’ (Merchant of Venice) का उल्लेख है। इस नाटक की नायिका पोर्शिया अपने वर का चुनाव स्वयं करती है। वह बड़ी सुंदर रीति से वर चुनती है।
किन सूत्रों में ढेलों की लॉटरी का उल्लेख है ?
इन गृह्यसूत्रों में ढेलों की लॉटरी का उल्लेख है :
आश्वलायन – गोभिल – भारद्वाज।
‘बालक बच गया’ में किस समस्या को उठाया गया है ?
इस प्रसंग का प्रतिपाद्य यह है कि बालक का विकास स्वाभाविक ढंग से होने देना चाहिए। हमें उस पर अपनी इच्छा नहीं डालनी चाहिए। उसे समय से पूर्व ज्ञान के बोझ से दबा नहीं देना चाहिए। जब उपयुक्ता समय आता है तब बालक स्वयं अपेक्षित ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उस पर यदि ज्ञान का बोझ लादा गया तो उसका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा। खेल का भी उसके जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
‘बालक बच गया’ निबंध का प्रतिपाद्य क्या है?
‘बालक बच गया’ निबंध का मूल प्रतिपाद्य हैशिक्षा-ग्रहण की सही उम्र बताना तथा बच्चे पर अनावश्यक बोझ को न लादना। लेखक का मानना है कि व्यक्ति के मानस के विकास के लिए शिक्षा होनी चाहिए, न कि शिक्षा के लिए मनुष्य। हमारा लक्ष्य मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखने का होना चाहिए। यदि मनुष्य बचा रहेगा तो समय आने पर उसे शिक्षित किया जा सकेगा। हमें बच्चे पर शिक्षा को लादना नहीं चाहिए। बच्चे को स्वाभाविक रूप से शिक्षा ग्रहण करने देनी चाहिए। हमें बच्चे के बचपन को नष्ट नहीं करना चाहिए।
‘बालक बच गया’ संस्मरण के शीर्षक की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
‘बालक बच गया’ शीर्षक पूर्णत: सार्थक है। इसमें लेखक बालक के ऊपर जबरन लादे गए बोझ से बच जाने को व्यंजित करता है। बालक से उसके शिक्षक जो कुछ कहलवा रहे थे, वह सब अस्वाभाविक था। बालक से जब वृद्ध महाशय ने इनाम में मनपसंद वस्तु माँगने को कहा, तब इसके द्वारा लड्डू माँगा जाना, उसकी-बाल सुलभ स्वाभाविकता को इंगित करता है। इससे लेखक को लगा कि अभी इस बालक के बचने की आशा है अर्थात् इसका बचपन बचाया जा सकता है। जिस प्रकार जीवित वृक्ष हरे पत्तों के माध्यम से अपनी जीवंतता का परिचय देता है उसी प्रकार बालक के लड्डू माँगने से उसकी स्वाभाविकता का पता चलता था। शीर्षक इस भावना को पूरी तरह व्यक्त करता है।
समाज में धर्म-संबंधी अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं। ‘ढेले चुन लो’ के आधार पर ऐसे कुछ अंधविश्वासों
‘ढेले चुन लो’ पाठ में बताया गया है कि समाज में धर्म संबंधी अनेक अंध विश्वास व्याप्त हैं। एक अंधविश्वास यह है- वैदिक काल में हिंदुओं में जो लाटरी चलती थी उसमें नर पूछता था कि नारी को बूझना पड़ता था। नर स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के घर पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता था। पीछे वह कन्या के सामने मिट्टी के कुछ ढेले रख देता और उससे कहता कि इनमें से एक उठा ले। ये ढेले प्रायः सात तक होते थे।
नर जानता था कि वह ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया है और उनमें किस-किस जगह कि मिट्टी है। कन्या इनके बारे में कुछ जानती न थी। यही लॉटरी की बुझौवल थी। इन ढेलों में वेदी, गौशाला, खेत, चौराहे, मसान (श्मशान) की मिट्टी होती थी। यदि वह वेदी का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित, गोबर चुना तो पशुओं का धनी, खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार-पुत्र होगा। मसान की मिट्टी अशुभ मानी जाती थी। यदि किसी नर के सामने वह वेदी का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। इस प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी वरण करते थे।
समाज में धर्म-संबंधी अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं। ‘ढेले चुन लो’ के आधार पर ऐसे कुछ अंध विश्वासों का उल्लेख कीजिए।
‘ढेले चुन लो’ पाठ में बताया गया है कि समाज में धर्म संबंधी अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं। एक अंधविश्वास यह है –
वैदिक काल में हिंदुओं में जो लाटरी चलती थी उसमें नर पूछता था कि नारी को बूझना पड़ता था। नर स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के घर पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता था। पीछे वह कन्या के सामने मिट्टी के कुछ ढेले रख देता और उससे कहता कि इनमें से एक उठा ले। ये ढेले प्रायः सात तक होते थे।
नर जानता था कि वह ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया है और उनमें किस-किस जगह कि मिट्टी है। कन्या इनके बारे में कुछ जानती न थी। यही लॉटरी की बुझौवल थी। इन ढेलों में वेदी, गौशाला, खेत, चौराहे, मसान (श्मशान) की मिट्टी होती थी। यदि वह वेदी का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित, गोबर चुना तो पशुओं का धनी, खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार-पुत्र होगा। मसान की मिट्टी अशुभ मानी जाती थी। यदि किसी नर के सामने वह वेदी का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। इस प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी वरण करते थे।
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