NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antara Chapter 1: Devsena ka Geet - Kaneliya ka Geet give insight into the chapter which comprises two pangs of longing and separation. In this poem, the author has gone into the inner world of Devsena, whose song manifests her feelings of loss and yearning for Kaneliya. The expressions of separation have been poetically and beautifully represented in this chapter, forming part of the curriculum. The solutions provide an in-depth analysis of metaphors and literary devices used, helping students appreciate the various nuances of Hindi literature. To add to this, these solutions help students effectively prepare for examinations by elaborating on the themes and motifs of the chapter in a rather simplified and clear manner.
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“मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई”-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
इस काव्य-पंक्ति में देवसेना अपने विगत जीवन पर विचार करती है। स्कंदगुप्त द्वारा प्रणय-निवेदन ठुकराए जाने के बाद उसने यौवन काल के अनमोल समय को ऐसे ही बिता दिया। वह अपनी जीवन की पूँजी की रक्षा नहीं कर पाई। अंतत: उसे पेट की ज्वाला शांत करने के लिए भिक्षा माँगने का सहारा लेना पड़ा। वह भ्रम की स्थिति में रही।
कवि ने आशा को बावली क्यों कहा है ?
कवि ने आशा को बावली इसलिए कहा है क्योंकि व्यक्ति आशा के भरोसे जीता है, सपने देखता है। प्रेम में आशा की डोर पकड़कर ही वह अपने मोहक सपने बुनता है। भले ही उसे असफलता ही क्यों न मिले। उसकी धुन बावलेपन की स्थिति तक पहुँच जाती है। आशा व्यक्ति को (विशेषकर प्रेमी को) बावला बनाए रखती है।
“मैने निज वुर्बल” होड़ लगाई” इन पंक्तियों में ‘ुर्ब्बल पद बल’ और ‘हारी होड़’ में निहित व्यंजना स्पष्ट कीजिए।
‘दुर्बल पद बल’ में यह व्यंजना निहित है कि प्रेयसी (देवसेना) अपनी शक्ति-सीमा से भली-भाँति परिचित है। उसे ज्ञात है कि उसके पद (चरण) दुर्बल हैं, फिर भी परिस्थिति से टकराती है। ‘हारी होड़’ में यह व्यंजना निहित है कि देवसेना को अपने प्रेम में हारने की निश्चितता का ज्ञान है, इसके बावजमद वह प्रलय से लोहा लेती है। इससे उसकी लगनशीलता का पता चलता है।
काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) श्रमित स्वप्न की मधुमाया ………… तान उठाई।
(ख) लौटा लो …………. लाज गँवाई।
(क) इन काव्य-पंक्तियों में स्मृति-बिंब साकार हो उठा है। देवसेना अपने असफल प्रेम की मधुर कल्पना में डूबी है। तभी उसे प्रेम के राग की तान सी पुन: सुनाई पड़ती है। इसे सुनकर वह चौंक जाती है।
‘स्वप्न’ को श्रमित कहने में गहरी व्यंजना है। ‘विहाग’ अर्धरात्रि में गाए जाने वाला राग है। देवसेना को यह राग जीवन के उत्तरार्द्ध में सुनाई पड़ता है। ‘गहन-विपिन’ तथा ‘तरु-छाया’ सामासिक शब्द हैं।
(ख) इन पंक्तियों में देवसेना की निराश एवं हताश मनःस्थिति का परिचय मिलता है। अब तो उसने अपने हृदय में स्कंदगुप्त के प्रति जो प्रेम संभाल कर रखा था उसने उसे वेदना ही दी। अब वह इसे आगे और संभालकर रखने में स्वयं को असमर्थ पाती है। अतः वह इस थाती को लौटा देना चाहती है। ‘करुणा हा-हा खाने’ में उसके हुदय की व्यथा उभर कर सामने आई है। इसे सँभालते-सँभालते वह अपने मन की लज्जा तक को भी गँवा बैठी है। ‘हा-हा’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
देवसेना की हार या निराशा के क्या कारण हैं?
देवसेना की हार या निराशा के कारण ये हैं-
हूणों के आक्रमण में देवसेना का भाई बंधुवर्मा (मालवा का राजा) तथा अन्य परिवार जन वीरगति पा गए थे। वह अकेली बच गई थी।
वह भाई के स्वप्नों को साकार करना चाहती, पर उस दिशा में कुछ विशेष कर नहीं पाई थी।
देवसेना यौवनावस्था में गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के प्रति आकर्षित थी और उसे पाना चाहती थी, पर इस प्रयास में वह असफल रही, क्योंकि उस समय स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया की ओर आकर्षित थे। देवसेना में अपनी उपेक्षा के कारण निराशा की भावना घर कर गई थी।
देवसेना को वृद्ध पर्णदत्त के आश्रम में गाना गाकर भीख तक माँगनी पड़ी थी।
कविता में व्यक्त प्रकृति-चित्रों को अपने शब्दों में लिखिए।
‘कार्नेंलिया का गीत’ कविता में प्रसाद ने भारत की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया है ?
‘कार्नेलिया का गीत’ कविता में प्रसाद जी ने भारत की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर संकेत किया है-
भारत का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत है। प्रसाद जी ने इसे मधुमय कहा है।
भारत की भूमि पर सूर्य की पहली किरणें पड़ती हैं।
इस देश में अनजान व्यक्तियों को भी आश्रय प्राप्त हो जाता है।
भारतवर्ष के लोगों के हुदय दया, करुणा एवं सहानुभूति की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं।
भारतवर्ष में सभी के सुखों की कामना की जाती है।
भारतीय संस्कृति महान एवं गौरवशाली है।
‘उड़ते खग’ और ‘बरसाती आँखों के बादल’ में क्या विशेष अर्थ व्यंजित होता है ?
‘उड़ते खग’ जिस दिशा में जाते हैं, वह देश भारतवर्ष है। यहाँ पक्षियों तक को आश्रय मिलता है। इससे विशेष अर्थ यह व्यंजित होता है कि भारत सभी शरणार्थियों की आश्रयस्थली है। यहाँ सभी को आश्रय मिल जाता है। यहाँ आकर लोगों को शांति और संतोष का अनुभव होता है। अनजान को सहारा देना हमारे देश की विशेषता है।
‘बरसाती आँखों के बादल’ से यह विशेष अर्थ ध्वनित होता है कि भारतवर्ष के लोग दया, करुणा और सहानुभूति के भावों से ओत-प्रोत हैं। यहाँ के लोग दूसरे के दुखों को देखकर द्रवित हो उठते हैं और उनकी आँखों से आँसू बरसने लगते हैं।
काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
‘हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती बुलकती सुख मेरे
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।
इन काव्य-पंक्तियों में प्रकृति के उषाकालीन वातावरण की सजीव झाँकी प्रस्तुत की गई है।
‘उषा’ का पनिहारिन के रूप में मानवीकरण किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उषा रूपी स्त्री आकाश रूपी कुएँ से अपने सुनहरे कलश (सूर्य) में मंगल जल लेकर आती है और इसे लोगों के सुखी जीवन के रूप में लुढ़का देती है। इससे सारे वातावरण में सुनहरी आभा बिखर जाती है। तब तक तो लोगों पर रात की मस्ती ही चढ़ी रहती है। तारे भी ऊँघते प्रतीत होते हैं।
उषाकालीन सौंदर्य साकार हो उठा है।
‘उषा’ का मानवीकरण किया गया है।
सर्वत्र सूपक अलंकार की छटा है।
‘तारे’ का भी मानवीकरण है।
गेयता एवं संगीतात्मकता का स्पष्ट प्रभाव है।
‘जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’-पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
इस पंक्ति का आशय यह है कि भारतवर्ष एक ऐसा महान देश है जहाँ अनजान व्यक्तियों को भी आश्रय प्राप्त हो जाता
है। यहाँ आकाश में उड़ते पक्षी तो सहारा पाते ही हैं, इसके साथ-साथ दूसरे देशों से आए हुए अनजान लोग भी यहाँ सहारा पा जाते हैं। भारतवासी विशाल हदय वाले हैं। ये सभी को स्वीकार कर लेते हैं। यहाँ आकर विक्षुब्ध एवं व्याकुल लोग भी अपार शांति एवं संतोष का अनुभव करते हैं। अनजान लोगों को सहारा देना भारतवर्ष की विशेषता है। सही मायने में यही भारत की पहचान है।
प्रसाद जी शब्दों के सटीक प्रयोग से भावाभिव्यक्ति को मार्मिक बनाने में कैसे कुशल हैं ? कविता से उदाहरण देकर सिद्ध कीजिए।
प्रसाद जी शब्दों का सटीक प्रयोग जानते हैं। वे शब्दों के बाजीगर हैं। शब्दों के सटीक प्रयोग के माध्यम से वे अपने कथ्य की भावाभिव्यक्ति को मार्मिक बना देते हैं। उनकी इस कला से हुदय के भाव मार्मिकता के साथ उभरते हैं। उदाहरण प्रस्तुत हैं
आह! वेदना मिली विदाई
+ + +
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा. हा-हा खाती
+ + +
बरसाती आँखों के बादल-
बनते जहाँ भरे करुणा जल।
कविता में आए प्रकृति-चित्रों वाले अंश छाँटिए और उन्हें अपने शब्दों में लिखिए।
प्रकृति-चित्रों वाले अंश
सरस तामरस गर्भ विभा पर
नाच रही तरुशिखा मनोहर
[प्रातःकालीन सूर्य की किरणें कमल के फूल के गर्भ पर और पेड़ों की चोटियों पर नाचती प्रतीत होती हैं।]
लघु सुरधनु से पंख पसारे
शीतल मलय समीर सहारे।
[छोटे पंखों को पसारे उड़ते पक्षी लघु इंद्रधनुष से प्रतीत होते हैं। वे शीतल (उंडी) मलय (सुगंधित) समीर (हवा) के सहारे तैरते जाते हैं।]
हेम कुंभ ले उषा सवेरे
भरती दुलकाती सुख मेरे।
[प्रात:कालीन सूर्य सोने के घड़े के समान प्रतीत होता है। यह घड़ा मांगलिक है और इसमें लोग के सुख भरे हैं जो ढुलकाने पर लोगों को प्राप्त हो जाते हैं।]
भोर के दृश्य को देखकर अपने अनुभव काव्यात्मक शैली में लिखिए।
भोर के दृश्य का काव्यात्मक वर्णन –
भोर का सूर्य-
लाल दमकता गोला
आकाश की काली स्लेट
पर गेरु की लकीरें खींचता
हमें अपनी ओर आकर्षित करता
मन मोहता है।
जयशंकर प्रसाद की काव्य रचना ‘आँसू’ पढ़िए।
‘आँसू’ कविता पुस्तकालय से लेकर पढ़िए।
‘जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छाई
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आई।
जयशंकर प्रसाद की कविता ‘हमारा प्यारा भारतवर्ष’ तथा रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘हिमालय के प्रति’ का कक्षा में वाचन कीजिए।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता ‘हिमालय के प्रति’
मेरे नगपति मेरे विशाल।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी! आज तप का न काल।
कितनी मणियाँ लुट गई ? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग ही रहा, इधर
वीर हुआ प्यारा स्वदेश।
किन द्रैपदियों के बाल खुले ?
किन-किन कलियों का अंत हुआ ?
कह हृदय खोल चित्तोर! यहाँ
कितने दिल ज्वाल वसंत हुआ ?
पूछे सिकताकण से हिमपति!
तेरा वह राजस्थान कहाँ ?
वन-वन स्वतंत्रता दीप लिए
फिरने वाला बलवान कहाँ ?
तू पूछ अवध से, राम कहाँ ?
वंदा! बोलो, घनश्याम कहाँ ?
औ मगध! कहाँ मेरे अशोक ?
वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ?
हमारा प्यारा भारतवर्ष (जयशंकर प्रसाद)
हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार। उषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार। जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर आलोक। व्योम, तम-पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो विमल वाणीं ने वीणा ली कमल कोमल कर में सप्रीत। सप्तस्वर सप्तसिन्धु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत। बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत। अरुण केतन लेकर निज हाथ वरुण पथ में हम बढ़े सुना है दधीचि का वह त्याग हमारी जातीयता विकास। पुरन्दर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरे इतिहास।
सिन्धु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह। दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह।। धर्म का ले-लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बन्द हमीं ने दिया शांति सन्देश, सुखी होते देकर आनन्द। विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम। भिक्षु होकर रहते सम्राट् दया दिखलाते घर-घर घूम। जातियों का उत्थान पतन, आँधियाँ, झड़ी प्रचंड समीर। खड़े देखा, फैला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर। चरित के पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा सम्पन्न। हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न।
निम्नलिखित काव्यांशों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
1. श्रमित स्वप्न की मधु माया में
गहन विपिन की तरु-छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई।
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन परक्तियों में देवसेना के कठिन जीवन-संघर्ष एवं उससे उत्पन्न निराशा के भाव को दर्शाया गया है। देवसेना जीवन के अंतिम मोड़ पर हताशा का शिकार हो जाती है। उसकी दशा उस थके यात्री के समान हो जाती है जो पेड़ के नीचे नींद में उनींदा हो रहा है। तभी उसे विहाग राग की तान सुनाई पड़ती है। यह तान स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन की थी जो उसे कतई नहीं अच्छी लगती। जीवन की संध्या वेला में वह असीम वेदना और निराशा के बीच झूल रही है। कवि ने सुख की आकांक्षा के जाग उठने को विहाग राग की तान के रूप में दर्शा कर सुंदर व्यंजना की है।
शिल्प-सौंदर्य :
स्वप्न को श्रमित कहने में गहरी व्यंजना है।
‘विहाग राग’ अर्धरात्रि में गाए जाने वाला राग है। इसे आकांक्षा के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है।
‘श्रमित स्वप्न’ में अनुं्रास अलंकार है।
‘स्वप्न’ को थका दर्शांकर उसका मानवीकरण किया गया है।
‘गहन-विपिन’ तथा ‘तरु-छाया’ में सामासिक शब्द हैं।
इन पंक्तियों में चित्रात्मकता का गुण है।
विषय की गंभीरता के अनुरूप तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है।
संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।
लौटा लो यह अपनी थाती,
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व ! न संभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गँवाई
काव्य-सौंदर्य
भाव-सौंदर्य : इन काव्य-पंक्तियों में देवसेना के हृदय की व्यथा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया गया है। इन पंक्तियों में देवसेना की निराश एवं हताश मन:स्थिति का पता चलता है। उसने स्कंदगुप्त के प्रति अपने प्यार को अब तक सँभालकर रखा हुआ था, पर अब वह इसे और अधिक समय तक सैंभाल पाने में स्वयं को असमर्थ पाती है। अब उसक हुदय तार-तार हो चुका है। अब वह उसे लौटाना चाहती है क्योंकि इस प्रेम ने उसे दुख ही दिया है।
इन पंक्तियों में दर्शाया गया है कि देवसेना जीवन-संघर्ष से थक चुकी है और अब वह अपनी व्यथा को और सहन करने में असममर्थ है। ‘करुणा हा हा खाने ‘में उसकी व्यथा उभरी है। उसके मन की लज्जा भी चली गई।
शिल्प-सौंदर्य :
‘करुणा’ का मानवीकरण किया गया है।
‘लौटा लो’ में अनुप्रास अलंकार है।
‘हा-हा’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
‘थाती’ शब्द का सटीक प्रयोग हुआ है।
करुण रस की व्यंजना हुई है।
भाषा सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है।
संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।
सरस तामरस गर्भ विभा पर,
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर,
मंगल कुंकुम सारा।
काव्य-सौन्दर्य : इस गीत में सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया भारतीय संस्कृति में अपनी आस्था प्रकट करते हुए यहाँ के अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य का गुणगान करती है। भारत सदा से दूसरों की शरणस्थली रहा है। यहाँ सर्वत्र हरियाली एवं मंगल भावना व्याप्त है। पक्षी तक भारत को अपना नीड़ (बसेरा) मानते हैं। ये देश सभी को अपने में समा लेता है।
शिल्प-सौंदर्य :
भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्रण हुआ है।
सूर्योदय के दृश्य का प्रभावी अंकन हुआ है।
काव्यांश में अनुप्रास, रूपक तथा उपमा अलंकार की छटा है।
संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग हुआ है।
कोमलकांत पदावली प्रयुक्त हुई है।
माधुर्य भाव का समावेश हुआ है।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे – भरती ठुलकाती सुख मेरे
मदिर ऊँघते रहते जब जगकर रजनी भर तारा।
काव्य-सौंदर्य
भाव-सौंदर्य : इन काव्य-पंक्तियों में उषाकालीन प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया गया है। इन पंक्तियों में तारों को मस्ती में ऊँघते हुए तथा उषा रूपी नायिका को सोने का घड़ा लिए सुखों को ढुलकाते हुए दर्शाया गया है। उषा (नायिका) सुनहरे घड़े (सूर्य) में सुख (मांगलिक जल) भर कर लाती है और लोगों के लिए उन्हें लुढ़का देती है अर्थात् सुखों का संचार कर देती है। तारे रात भर जागते हैं अतः प्रातःकाल उनकी ऊँघती दशा को मद्धिम पड़ती रोशनी के रूप में दर्शाया गया है। उषा के हाथ में सुखों से भरा घड़ा होने की कल्पना सर्वथा नवीन है।
शिल्प-सौंदर्य :
तारों एवं उषा का मानवीकरण किया गया है।
तारों के ऊँघते रहने के बीच उषा को सुख लुढ़काने का आकर्षक बिंब का सृजन हुआ है।
‘जब जगकर’ में अनुप्रास अलंकार है।
रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।
शब्द-चयन अत्यंत सटीक है। तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस-गर्भ विभा पर – नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन हरियाली पर – मंगल कुंकुम सारा !
लघु सुरधनु से पंख पसारे – शीतल मलय समीर सहारे
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए – समझ नीड़ निज प्यारा।
इस गीत में सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया भारतीय संस्कृति में अपनी आस्था प्रकट करते हुए यहाँ के अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य का गुणगान करती है। भारत सदा से दूसरों की शरण स्थली रहा है। यहाँ सर्वत्र हरियाली एवं मंगल भावना व्याप्त है। पक्षी तक-भारत को अपना नीड़ (बसेरा) मानते हैं। यह देश सभी को अपने में समा लेता है।
शिल्प-सौंदर्य :
भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्रण हुआ है।
सूर्योंदय के दृश्य का प्रभावी अंकन हुआ है।
काव्यांश में अनुप्रास, रूपक तथा उपमा अलंकार की छटा है।
संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग हुआ है।
कोमलकांत पदावली प्रयुक्त हुई है।
माधुर्य भाव का समावेश हुआ है।
लघु सुरधनु-से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए-समझ नीड़ निज प्यारा।
इन काव्य-पंक्तियों में जहाँ एक ओर प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्रण है वहीं भारतीय संस्कृति की महानता भी उल्लेखित हुई है। भारत एक ऐसा देश है जिसे सभी अपना घर समझते हैं। यहाँ सभी को आश्रय मिलता है। पक्षी इसी देश की ओर मुँह करके उड़ते हैं। उड़ते पक्षी छोटे-छोटे इंद्रधनुषों के समान प्रतीत होते हैं।
‘लघु सुरधनु से’ में उपमा अलंकार है।
‘समीर सहारे’, ‘नीड़ निज’, ‘पंख पसारे’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा-जल
लहरें टकराती अनंत की-पवाकर जहाँ किनारा।
हेम कुंभ ले उषा सबेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रज्जनी भर तारा।
भाव-सौन्दर्य : प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में गाए ‘कार्नेलिया के गीत’ से अवतरित है। सिंधु नदी के तट पर ग्रीक शिविर के निकट बैठी सेल्यूकस की पुत्री
कार्नेलिया भारत की विशेषताओं का गुणगान करते हुए कहती है –
भारतवर्ष दया, सहानुभूति एवं करुणा वाला देश है। यहाँ के लोगों की आँखों में करुणापूर्ण आँसू बहते रहते हैं। वे किसी की पीड़ा को नहीं देख सकते। उनकी आँखों से निकले अश्रु जल से भरे बादल बन जाते हैं। यहाँ तो अनंत से आती हुई लहरें भी किनारा (आश्रय) पाकर टकराने लगती हैं और यहीं शांत हो जाती हैं। इसी प्रकार विभिन्न देशों से आए व्याकुल एवं विक्षुब्ध प्राणी भारत में आकर अपार शांति का अनुभव करते हैं। उन्हें भी यहाँ किनारा अर्थात् ठिकाना मिल जाता है। दूसरों को किनारा देना भारतवर्ष की विशेषता है।
कारेंलिया भारत की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कहती है कि इस देश का सूर्योदय का दृश्य अवर्णनीय है। सूर्योंदय से पूर्व उषा स्वयं स्वर्णकलश लेकर (सूर्य के रूप में) इस देश के ऊपर सुखों की वर्षा करती है। जब रात भर जगने के बाद तारे मस्ती में ऊँघते रहते हैं अर्थात् छिपने की तैयारी कर रहे होते हैं तब उषा रूपी नायिका आकाश रूपी कुएँ से अपने सुनहरी कलश में सुख रूपी पानी भर कर लाती है और उसे भारत भूमि पर लुढ़का देती है अर्थात् रात बीत जाने पर जब प्रातःकालीन किरणें धरती पर छाने लगती हैं तब सुखद अनुभूति होती है। तारे रात भर जागते हैं अतः प्रातःकाल उनकी ऊँघती दशा को मद्धिम पड़ती रोशनी के रूप में दर्शाया गया है। उषा के हाथ में सुख्रों से भरा घड़ा होने की कल्पना सर्वथा नवीन है।
शिल्प-सौन्दर्य :
तारों एवं उषा का मानवीकरण किया गया है।
तारों के ऊँघते रहने के बीच उषा को सुख लुढ़काने का आकर्षक बिंब का सृजन हुआ है।
‘जब जगकर’ में अनुप्रास अलंकार है।
रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।
शब्द-चयन अत्यंत सटीक है। तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
‘देवसेना का गीत’ का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
‘देवसेना का गीत’ प्रसादजी के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से लिया गया है। देवसेना का पिता और भाई वीरगति को प्राप्त हुए थे। देवसेना यौवनकाल के प्रारंभ से स्कंदगुप्त को चाहती थी, पर तब स्कंदगुप्त: मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया को पाना चाहते थे। उसके न मिलने पर जीवन के अंतिम मोड़ पर स्कंदगुप्त ने देवसेना का साथ चाहा, पर वह इंकार कर देती है। वह बूढ़े पर्णदत्त के साथ आश्रम में भिक्षा माँगती है। देवसेना अपने विगत जीवन पर दृष्टिपात करती है तो वह अपने भ्रमवश किए कामों पर पछताती है। वह अपने जीवन की पूँजी की रक्षा नहीं कर पाती। वह हार निश्चित होने के बावजूंद प्रलय से लोहा लेती है।
‘कार्नेलिया का गीत’ का प्रतिपाद्य लिखिए।
‘कार्नेलिया का गीत’ कविता जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक ‘चंड़गुप्त’ का एक प्रसिद्ध गीत है। कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी है। वह सिंधु के किनारे एक ग्रीक शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठी हुई है। वह अचानक गा उठी है-सिंधु का यह मनोहर तट मेरी आँखों के सामने एक आकर्षक चित्र उपस्थित कर रहा है। उसे यह देश अपना प्रतीत होता है, अतः वह कह उठती है- अरूण, यह मधुमय देश हमारा’। इस गीत से वह भारतवर्ष की गौरवशाली परंपरा का गुणगान करती है। इस महान देश में सभी प्राणियों को आश्रय प्राप्त होता है। पक्षी अपने प्यारे घोंसलों की कल्पना करके जिस ओर उड़े चले जा रहे हैं, वही देश प्यारा भारतवर्ष है। इस देश का प्रातःकाल इतना आकर्षक होता है कि ऐसा प्रतीत होता है कि उषा रूपी नायिक हमारे लिए सुखों की वर्षा कर रही हो। यहाँ के निवासियों के नेत्रों से करुण जल बरसता रहता है। यही भारत की पहचान है।
‘कार्नेलिया का गीत’ कविता के माध्यम से देशभक्ति के साथ-साथ भारतीय इतिहास की भी झलक
जयशंकर प्रसाद इस गीत के माध्यम से राष्ट्र-भक्ति का केवल एक और श्रेष्ठ स्वरूप ही प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि सत्य, अहिंसा और करूणा इस देश की संस्कृति के मुख्य तत्वों में से रहे हैं। अतः प्रत्येक भारतवासी की आँख में करुणा का जल बादलों की तरह विद्यमान रहता है। भारत की भौगोलिक सीमाओं को देखें तो इसके पूर्व-पश्चिम एवं दक्षिण तीनों तटों पर तीन-तीन सागरों की लहरें ही आकर नहीं टकराती, अपितु उन लहरों पर सवार होकर आए जलयान और उनके यात्री भी अपनी मंजिल पा जाते हैं।
कृवि का संकेत कोलंबस एवं वास्को-डि-गामा जैसे यात्रियों की ओर ही है। इस प्रकार भारत के प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्त्व और जीवन के सुख को प्रदान करने की क्षमता आदि का गुणगान करके कवि भारतवासियों के मन में देश-गौरव का भाव जागृत करना चाहता है और एक विदेशी युवती के
मुख से गीत गवाकर प्रसाद यह संदेश भी देना चाहते हैं कि यदि कार्नेलिया जैसी विदेशी युवती इस देश को अपनाकर इसे प्राणपन से प्रेम कर सकती है तो हम भारतीय ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
‘मेरी करुणा हा-हा खाती’ इस उद्गार के आलोक में देवसेना की वेदना को समझाइए।
अंत में देवसेना भाव-विह्लल होकर विश्व को संबोधित करती हुई कहती है कि तुमने उसे (देवसेना को) जो विश्वासरूपी अथवा स्नेहरूपी धरोहर सौंप रखी थी, उसे अब वापस ले लो। उसका जीवन करुणा से भर गया है और यह करुणा उसके लिए दुखदायी बन गई है। उसकी करुणा उसके लिए दुखदायी बन गई है। उसकी करुणा उसे खाए जा रही है। संसार ने जो जिम्मेदारी देवसेना को सौंप रखी थी, उसे वह सँभाल नहीं पाई है। अतः वह अपने मन में लज्जित है कि उसके मन ने लाज खो दी है।
देवसेना के परिश्रम से निकली पसीने की बूँदे आँसू की तरह क्यों प्रतीत हो रही थीं ? – ‘देवसेना का गीत’ कविता के आधार पर बताइए।
अथवा
देवसेना की वेदना का कारण समझाइए।
देवसेना की वेदना के कारण :
देवसेना के परिवार के सभी सदस्य हूग्णों के आक्रमण का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
देवसेना राष्ट्र-सेवा का व्रत लिए हुए संघर्ष कर रही थी।
वह प्रारंभ में जिस स्कंदगुप्त से प्रेम करती थी, उसे किसी ओर से प्रेम था। अतः देवसेना निराश हो गई थी।
देवसेना का जीवन अत्यंत दुखों और कठिनाइयों से भरा हुआ था।
वह अपने जीवन-यापन के लिए गाना गाकर भीख माँगती फिर रही थी।
देवसेना जीवन-संघर्ष करते हुए इधर पसीने बहा रही थी, उधर उसकी मानसिक व्यथा के कारण उसकी आँखों से निकले आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
इन्हीं कारणों से उसके परिश्रम से निकली पसीने की बूँदों को आँसू की तरह गिरती हुई बताया गया है।
‘कार्नेलिया का गीत’ कविता में वृक्षों की सुंदरता का वर्णन किस रूप में हुआ है ?
‘कान्नेलिया का गीत’ कविता में वृक्ष्षों की सुंदरता का वर्णन अत्यंत आकर्षक रूप से हुआ है।
नदी-सरोवरों के जल में कमल-नाल की आभा पर वृक्षों की चोटियों की परछाई अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रही है।
सरोवरों की लहरों पर वह परछाई नाचती हुई-सी लग रही है।
सर्वत्र हरियाली बिखरी हुई है और उस हरियाली पर मंगल-कुकुम के रूप में जीवन छिटका हुआ है।
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