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कुटज को गाढ़े का साथी क्यों कहा गया है ?
कुटज को गाढ़े का साथी इसलिए कहा गया है क्योंकि यह मुसीबत में काम आया। कालिदास ने आषाढ़ मास के प्रथम दिन जब यक्ष को रामगिरि पर्वत पर मेघ की अभ्यर्थना के लिए भेजा जब उसे और कोई ताजे फूल न मिले तब उसे ताजे कुटज फूलों की अंजलि देकर संतोष करना पड़ा। उसे चंपक, बकुत, नीलोत्पल, मल्लिका, अरविंद के फूल नहीं मिले, मिले तो केवल कुटज के फूल। इस प्रकार वे गाढ़े समय में उनके काम आए। वैसे यक्ष तो बहाना है, कालिदास ही कभी रामगिरि पहुँचे थे और अपने हाथों इस कुटज पुष्प का अर्घ्य देकर मेघ की अभ्यर्थना की थी। इस प्रकार कुटज गाढ़े का साथी बना।
नाम क्यों बड़ा है ? लेखक के विचार अपने शब्दों में लिखिए।
लेखक इस प्रश्न पर विचार करता है कि रूप मुख्य है या नाम। नाम बड़ा है या रूप। वैसे यह कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है। नाम की जरूरत हो तो कुटुज को भी सौ नाम दिए जा सकते हैं पर लेखक का मानना है कि नाम इसलिए बड़ा नहीं कि वह नाम है, बल्कि वह इसलिए बड़ा होता है क्योंकि नाम से उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य होता है जबकि नाम समाज सत्य होता है। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। इसे आधुनिक लोग इसे ‘सोशल सेंक्शन’ (Social Sanction) कहते हैं। लेखक का मन भी ऐसे नाम के लिए व्याकुल होता है, जिसे समाज द्वारा स्वीकृत हो, इतिहास द्वारा प्रमाणित हो तथा सभी लोगों के चित्त में समाया हो।
‘कुट’, ‘कुटज’ और ‘कुटनी’ शब्दों का विश्लेषण कर उनमें आपसी संबंध स्थापित कीजिए।
‘कुट’ शब्द ‘घड़े’ के लिए भी आता है और ‘घर’ के लिए भी। ‘घड़े’ से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि को ‘कुटज’ कहा जाता है (कुट + ज – घड़े से उत्पन्न)। वे घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए होंगे, कोई और बात होगी, घर से उत्पन्न हुए होंगे। एक गलत ढंग की दासी को ‘कुटनी’ कहा जाता है। संस्कृत में उसकी गलतियों को थोड़ा और अधिक मुखर बनाने के लिए उसे ‘कुट्टनी’ कहा जाता है। ‘कुटनी’ शब्द से दासी का बोध होता है तो क्या अगस्त्य मुनि भी नारदजी की तरह दासी के पुत्र थे ? घड़े से पैदा होने की तो कोई बात जँचती नहीं। न तो मुनि के सिलसिले में और न फूल के कुटज के सिलसिले में। कुटज गमले में नहीं होते, वह तो जंगल का सैलानी फूल है।
कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है ?
कुटज में अपराजेय जीवनी-शक्ति है। यह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है। कुटज की शोभा मादक है। इसकी जीवनी-शक्ति का इसी से पता चलता है कि यह चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वासों के समान धधकती धू में भी हरा-भरा बना रहता है। यह कठोर पाषाणों (पत्थरों) के बीच्च रुके अज्ञात जलस्रोत से अपने लिए जबर्दस्ती रस खींच लाता है और सरस बना रहता है।
सूने पर्वतों के मध्य भी इसकी मस्ती को देखकर ईष्ष्यी, होती है। इसमें कठिन जीवनी-शक्ति होती है। यह जीवम्-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है। कुटज अपनी जीवनी-शक्ति की घोषणा करते हुए हमें बताता है कि यदि जीना चाहते हो तो मेरी तरह से कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती को चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, आँधी-तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल करो। आकाश को चूमकर, लहरों में झूमकर उल्लास को खींच लो।
कुटज हम सभी को क्या उपदेश देता है ? टिप्पणी कीजिए।
कुटज हम सभी को यह उपदेश देता है कि कठिन परिस्थितियों में भी जीना सीखो। सामान्य परिस्थितियों में तो सभी जी लेते हैं पर विषम परिस्थितियों में जीना वास्तव में जीना है। वह हमें यह संदेश देता है कि रस का स्रोत जहाँ कहीं भी हो, वहीं से उसे खींचकर बाहर लाओ। जिस प्रकार वह कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपने भोग्य का संग्रह करता है, उसी प्रकार हम सभी को अपने भोग्य का संग्रह करना चाहिए। हमें अपने प्राप्य को छोड़ना नहीं चाहिए। प्रकृति से या मनुष्य से जहाँ से भी हो हमें अपनी जीवनी-शक्ति को पाना है।
कुटज के जीवन से हमें क्या सीख मिलती है ?
कुटज के जीवन से हमें यह सीख मिलती है- कठिन और विषम परिस्थितियों में हैसकर जीना सीखो।
अपना प्राप्य हर हालत में वसूल करो।
दूसरों के द्वार पर भीख माँगने मत जाओ।
कोई निकट आ जाए तो भय के मारे अधमरे मत हो जाओ।
शान के साथ जिओ।
चाहे सुख हो या दु:ख हो, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाए उसे हृदय से, अपराजित होकर, सोल्लास ग्रहण करो।
कुटज क्या केवल जी रहा है-लेखक ने यह प्रश्न उठाकर किन मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है ?
‘कुटज क्या केवल जी रहा है’ लेखक ने यह प्रश्न उठाकर अनेक मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है। कुटज केवल जीता ही नहीं, शान से और स्वाभिमानपूर्वक जीता है। ‘केवल जीने’ से यह ध्वनित होता है कि वह विवशतापूर्ण जीवन जी रहा है, जबकि वास्तविकता इसके उलट है। वह अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बलबूते पर जीता है। इस प्रश्न से मानव स्वभाव की इस कमजोरी पर प्रकाश पड़ता है कि अनेक व्यक्ति किसी-न-किसी विवशतावश जी रहे हैं। उनमें जिजीविषा शक्ति का अभाव है। वे जैसे-तैसे करके जी रहे हैं। उनमें संघर्ष का अभाव है। वे अपना प्राप्य वसूल करना नहीं जानते। वे कठिन परिस्थितियों से टकरा भोग्य नहीं वसूल पाते। उनके जीवन में उल्लास नहीं है। वे हारे मन से जी रहे हैं। उन्हें इस प्रवृत्ति को त्यागना होगा।
लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है ? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए।
लेखक यह मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर, जिजीविषा से भी प्रचंड कोई शक्ति अवश्य है पर वह शक्ति क्या है ? यह प्रश्न उठता है। वह शक्ति है-‘ सर्व’ के लिए स्वयं को न्यौछावर कर देना। व्यक्ति की ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह व्यापक है। अपने में सबको और सब में अपने को मिला देना, इसकी समष्टि बुद्धि के आ जाने पर पूर्ण सुख का आनंद मिलता है। जब तक हम स्वयं को द्राक्षा की भाँति निचोड़कर ‘सर्व’ (सबके) के लिए न्यौछावर नहीं कर देते तब तक स्वार्थ और मोह बना रहता है। इससे तृष्णा उपजती है, मनुष्य दयनीय बनता है, दृष्टि मलिन हो जाती है। लेखक परामर्थ पर बल देता है।
‘कुटज’ पाठ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि ‘दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं।’
‘कुटज’ पाठ में बताया गया है कि दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी केवल वह व्यक्ति है जिसने मन को वश में कर रखा है। दुःख उसको होता है जिसका मन परवश अर्थात् दूसरे के वश में होता है। यहाँ परवश होने का यह भी अर्थ है-खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता करना, जी हजूरी करना। जिस व्यक्ति का मन अपने वश में नहीं होता वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को छिपाने के लिए मिथ्या आडंबर रचता है और दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। सुख्खी व्यक्ति तो अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। अतः दुख और सुख मन के विकल्प हैं।
निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
(क) ‘कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं।
ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अत्ल गह्नर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।’
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि बाहर से बेशर्म दिखाई देने वालों की जड़ें कई बार बड़ी गहराई में समाई होती हैं अर्थात् बाहरी और आंतरिक स्थिति में भारी अंतर पाया जाता है। कुटज के वृक्ष भी बाहर से भले ही नीरस और सूखे प्रतीत होते हों पर वे इनकी जड़ें पत्थर की छाती को फोड़कर अत्यंत गहराई तक समाई होती हैं। ये तो पाताल जितनी गहराई से भी अपना भोजन खींच लाते हैं, तभी तो विषम परिस्थितियों में भी इनका अस्तित्व बना रहता है। ये वृक्ष ऊपर से भले ही बेहया अर्थात् मस्तमौला दिखाई देते हों पर ये भीतर से बहुत गहरी सोच रखते हैं। जब इन्हें अपना काम पूरा करना होता है तो विषम परिस्थितियों में भी रास्ता खोज लेते हैं।
विशेष :
कुटज द्वारा मानव को संदेश दिया गया है।
तत्सम-तद्भव शब्दों का प्रयोग किया गया है।
भाषा सहज एवं सरल है।
(ख) रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सैंक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात।’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।
व्याख्याः रूप का सत्य व्यक्ति तक सीमित रहता है अर्थात् रूप का प्रभाव व्यक्ति-विशेष पर पड़ता है। नाम का संबंध समाज से है। व्यक्ति अपने नाम से ही समाज में जाना जाता है। नाम वह पद होता है जिसे समाज की स्वीकृति मिली होती है। इसी स्वीकृति को आधुनिक समाज ‘सोशल सैंक्शान’ (Social Sanction कहता है अर्थात् यह नाम समाज में मान्य है। लेखक का मन भी इस वृक्ष का नाम जानने को बेचैन है। वह इसके उस नाम को जानना चाहता है जिसे समाज ने स्वीकार किया हो तथा इतिहास ने प्रमाणित किया हो और सभी लोगों के चित्त में समाया हो अर्थात् सभी दृष्टियों से मान्य एवं स्वीकृत हो। लेखक को दूसरा नाम कुटज देर से याद आता है।
विशेष :
तत्सम शब्दावली के साथ अंग्रेजी शब्द (सोशल सैंक्शन) का भी प्रयोग हुआ है।
विषयानुकूल भाषा-शैली अपनाई गई है।
(ग) ‘रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलम्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।
व्याख्या : लेखक कुटज के रूप पर बलिहारी जाता है। उसे कुटज का रूप अत्यंत मनोहारी प्रतीत होता है। उसे इसकी शोभा मादक लगती है। यद्यपि चारों ओर भीषण गर्मी पड़ रही होती है फिर भी यह हरा-भरा बना रहता है। लू ऐसे चलती है जैसे यमराज अपनी दारुण साँसें छोड़ रहा हो। कुटज इससे अप्रभावित रहता है। वह इस विपरीत मौसम में भी खूब फलता-फूलता है। यह पत्थरों की अतल गहराई से भी अज्ञात जलस्रोत से अपने लिए रस खींच लाता है अर्थात् यह कहीं से भी हो अपना भोग्य वसूल ही कर लेता है। इसमें असीम जीवनी-शक्ति है। यह विषम प्राकृतिक परिस्थितियों में खुशी के साथ जीना जानता है और जीता है।
विशेष :
तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
विषयानुकूल भाषा अपनाई गई है।
(घ) ‘हुदयेनापराजितः! कितना विशाल वह हूदय होगा जो सुख से, दु:ख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा! कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिली है यह अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन दृष्टि!’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।
व्याख्या : हूदय से पराजित न होना। वह आदमी बड़ा ही विशाल हदय होता है जो सुख से, दुःख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित नहीं होता अर्थात् जो व्यक्ति सभी स्थितियों में एक समान रहते हैं वे निश्चय ही विशाल हृदय वाले होते हैं। कुटज भी इसी प्रकार का होता है। उसको देखकर रोमांच हो आता है। पता नहीं कहाँ से मिली उसे ऐसी निडरता। उसमें किसी से भयभीत न होने की प्रवृत्ति झलकती है। वह किसी कि सम्मुख हार स्वीकार नहीं मानता। वह किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता। उसकी जीवन दृष्टि विशाल है।
विशेष :
वाक्य रचना बेजोड़ है।
तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
विषयानुकूल भाषा-शैली अपनाई गई है।
कुटज’ की तर्ज पर किसी जंगली फूल पर लेख अथवा कविता लिखने का प्रयास कीजिए।
विद्यार्थी प्रयास करें।
लेखक ने ‘कुटज’ को ही क्यों चुना है ? उसको अपनी रचना के लिए जंगल में पेड़-पौधे तथा फूलों-वनस्पतियों की कोई कमी नहीं थी।
लेखक को कुटज की जिजीविषा भा गई अतः उसने इसे चुना।
कुटज के बारे में उसकी विशेषताओं को बताने वाने दस वाक्य पाठ से छाँटिए और उनकी मानवीय संदर्भ में विवेचना कीजिए।
यह मस्तमौला है।
यह एक छोटा-सा बहुत ही ठिगना पेड़ है।
यह मुसकराता जान पड़ता है।
यह अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है।
कुटज किसी के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता।
जीना भी एक कला है’-कुटज के आधार पर सिद्ध कीजिए।
‘जीना भी एक कला है’-इस कला को कुटज जानता है। वह शान से जीता है, उल्लासपूर्वक जीता है, अपराजेय भाव से जीता है। हमें भी इसी प्रकार जीना चाहिए। अपने जीवन को ‘सर्व’ के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए।
पवरंत के बारे में प्रायः क्या कहा जाता है ? हिमालय की शोभा के बारे में क्या बताया गया है ?
प्रायः कहा जाता है कि पर्वत शोभा निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का. तो कहना ही क्या! पूर्व और अपर समुद्र-महोदधि और रत्नाकर दोनों को दोनों भुजाओं से थामता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाए तो गलत नहीं है। कालिदास ने भी ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह श्रंखला दूर तक लोटी हुई है। लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते है। ‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है ? ‘शिवालिक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा। लगता तो ऐसा ही है क्योंकि शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है।
‘कुटज’ निबंध में आच्रार्य द्विवेदी ने सुख और दुख के क्या लक्षण बताए हैं ? कुटज दोनों से भिन्न कैसें है ? स्पष्ट कीजिए।
‘कुटज’ पाठ में बताया गया है कि दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी केवल वह व्यक्ति है जिसने मन को वश में कर रखा है। दु:ख उसको होता है जिसका मन परवश अर्थात् दूसरे के वश में होता है। यहाँ परवश होने का यह भी अर्थ है-खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता करना, जी हजूरी करना। जिस व्यक्ति का मन अपने वश में नहीं होता वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को छिपाने के लिए मिथ्या आडंबर रचता है और दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। सुखी व्यक्ति तो अपने मन पर सवारी करता है,मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। अतः दुःख और सुख मन के विकल्प हैं।
उपकार और अपकार करने वाले के बारे में क्या कहा गया है ?
लेखक का कहना है कि जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अबोध है और जो समझाता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं वह भी बुद्धिही न है। कौन किसका उपकार करता है, कौन किसका अपकार कर रहा है। यह बात विचारणीय है मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा है; अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास-विधाता की योजना के अनुसार। किसी को उससे सुख मिल जाए, बहुत अच्छी बात है; नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परंतु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुःख पहुँचाने का अभिमान तो नितांत गलत है।
भाषा विज्ञानी पंडितों को क्या देखकर आश्चर्य हुआ ?
भाषा विज्ञानी पंडितों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ऑस्ट्रेलिया से सुदूर जंगलों में बसी जातियों की भाषा एशिया में बसी हुई कुछ जातियों की भाषा से संबद्ध है। भारत की अनेक जातियाँ वह भाषा बोलती हैं, जिनमें संथाल, मुंडा आदि भी शामिल हैं। शुरू-शुरू में इस भाषा का नाम आस्ट्रो-एशियाटिक दिया गया था। दक्षिण-पूर्व या अग्निकोण की भाषा होने के कारण इसे आग्नेय-परिवार भी कहा जाने लगा है। अब हम लोग भारतीय जनता के वर्ग-विशेष को ध्यान में रखकर और पुराने साहित्य का स्मरण करके इसे कोल-परिवार की भाषा कहने लगे हैं। पंडितों ने बताया है कि संस्कृत भाषा के अनेक शब्द, जो अब भारतीय संस्कृति के अविच्छेद्य अंग बन गए हैं, इसी श्रेणी की भाषा के हैं। कमल, कुड्मल, कंबु, कंबल, तांबूल आदि शब्द ऐसे ही बताए जाते हैं। पेड़-पौधों, खेती के उपकरणों और औजारों के नाम भी ऐसे ही हैं। ‘कुटज’ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
पर्वतराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों को देखकर कैंसा लगता है ? कुटज क्या शिक्षा देता जान पड़ता है ?
पर्वतराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों को देखकर लगता है कि वहीं कहीं भगवान महादेव समाधि लगाकर बैठे होंगे; नीचे सपाट पथरीली जमीन का मैदान है, कहीं-कहीं पर्वतनंदिनी सरिताएँ आगे बढ़ने का रास्ता खोज रही होंगी-बीच में यह चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ जटाभूमि है-सूखी, नीरस, कठोर! यहीं आसन मारकर बैठे हैं कुटज। एक बार अपने झबरीले मूर्धा को हिलाकर समाधिनिष्ठ महादेव को पुष्पस्तबक का उपहार चढ़ा देते हैं और एक बार नीचे की ओर अपनी पाताल भेदी जड़ों को दबाकर गिरिनेंदिनी सरिताओं को संकेत से बता देते हैं कि रस का स्रोत कहाँ हैं। कुटज यह शिक्षा देता जान पड़ता है कि यदि तुम जीना चाहते हो तो कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो; वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो; आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो।
लेखक ‘कुटज’ शब्द की व्याख्या किस-किस रूप में करता है ?
लेखक ‘कुटज’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहता है-
‘कुटज’ अर्थात् जो कुट से पैदा हुआ हो। ‘कुट’ घड़े को भी कहते हैं, घर को भी कहते हैं। कुट अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि भी ‘कुटज’, क्रहे जाते हैं। घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए होंगे। कोई और बात होगी। संस्कृत में ‘कुटिहारिका’ और ‘ कुटकारिका’ दासी को कहते हैं। ‘कुटिया’ या ‘कुटीर’ शब्द भी कदाचित् इसी शब्द से संबद्ध है। क्या इस शब्द का अर्थ घर ही है। घर में काम-काज करने वाली दासी कुटकारिका और कुटहारिका कही ही जा सकती है। एक जऱा गलत ढंग की दासी ‘कुटनी’ भी कही जा सकती है। संस्कृत में उसकी गलतियों को थोड़ा अधिक मुखर बनाने के लिए उसे ‘कुटृनी’ कह दिया गया है। अगस्त्य मुनि भी नारदजी की तरह दासी के पुत्र थे क्या ? घड़े में पैदा होने का तो कोई तुक नहीं है, न मुनि कुटज के सिलसिले में, न फूल कुटज के। फूल गमले में होते अवश्य हैं, पर कुटज तो जंगल का सैलानी है। उसे घड़े या गमले से क्या लेना-देना ? शब्द विचारोत्तेजक अवश्य है।
कालिदास ने कुटज का उपयोग कब और कहाँ किया ? यह बड़भागी क्यों है ?
कालिदास ने ‘आषाढ़स्य प्रथम-दिवसे’ रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया तो कंबख्त को ताजे कुटज पुष्पों की अंजलि देकर ही संतोष करना पड़ा-उसे चंपक नहीं, बकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, मल्लिका नहीं, अरविंद नहीं- फकत कुटज के फूल मिले। यह और बात है कि आज आषाढ़ का नहीं, जुलाई का पहला दिन है। मगर फर्क भी कितना है। पर यक्ष बहाना-मात्र है, कालिदास ही कभी ‘शापेनास्तंगमितमहिमा’ होकर रामगिरिं पहुँचे थे, अपने ही हाथंथं इस कुटल पुष्प का अर्घ्य देकर उन्होंने मेघ की अभ्यर्थना की थी। शिवालिक की इस अनत्युच्च पर्वत-श्रृंखला की भाँति रामगिरि पर भी उस समय और कोई फूल नहीं मिला होगा। कुटज ने उनके संतृप्त चित्त को सहारा दिया था। यह फूल बड़भागी है।
‘कुटज’ पाठ हमें क्या संदेश देता है ?
कुटज हिमालय की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला जंगली फूल है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए संदेश पाया है। कुटज में अपराजेय जीवन शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्म विश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। इसी प्रकार हमें भी अपनी जिजीविषा बनाए रखनी चाहिए और सभी स्थितियों को सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए।
‘कुटज’ का लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर और जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है ? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए।
लेखक यह मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई शक्ति अवश्य है पर वह शक्ति क्या है ? यह प्रश्न उठता है। वह शक्ति है-‘सर्व’ के लिए स्वयं को न्यौछावर कर देना। व्यक्ति को ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह व्यापक है। अपने में सबको और सब में अपने को मिला देना, इसकी समष्टि बुद्धि के आ जाने पर पूर्ण सुख का आनंद मिलता है। जब तक हम स्वयं को द्राक्षा की भाँति निचोड़कर ‘सर्व’ (सबके) के लिए न्यौछावर नहीं कर देते तब तक स्वार्थ और मोह बना रहता है। इससे तृष्णा उपजती है, मनुष्य दयनीय बनता है, दृष्टि मलिन हो जाती है। लेखक परामर्थ पर बल देता है।
कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है ?
कुटज में अपराजेय जीवनी-शक्ति है। यह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है। कुटज की शोभा मदक है। इसकी जीवनी-शक्ति का इसी से पता चलता है कि यह चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वासों के समान धधकती धू में भी हरा-भरा बना रहता है। यह कठोर पाषाणों (पत्थरों) के बीच रुके अज्ञात जल स्रोत से अपने लिए जबर्दस्ती रस खींच लाता है और सरस बना रहता है। सूने पर्वतों के मध्य भी इसकी मस्ती को देखकर ईष्य्या होती है।
इसमें कठिन जीवनी-शक्ति होती है। यह जीवन-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है। कुटज अपनी जीवनी-शक्ति की घोषणा करते हुए हमें बताता है कि यदि जीना चाहते हो तो मेरी तरह से कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती को चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, आँधी-तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल करो। आकाश को चूमकर, लहरों में झूमकर उल्लास को खींच लो।
कुटज के जीवन से हमें क्या शिक्षा मिलती है? उसे ‘गाढ़े का साथी’ क्यों कहा गया है ?
कुटज के जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हँकरन जीने की कला आनी चाहिए तथा अपने प्राप्य को हर कीमत पर वसूल करो। कुटज को गाढ़े का साथी इसलिए कहा गया है क्योंकि यह मुसीबत में काम आया। कालिदास ने आषाढ़ मास के प्रथम दिन जब यक्ष को रामगिरि पर्वत पर मेघ की अभ्यर्थना के लिए भेजा जब उसे और कोई ताजे फूल न मिले तब उसे ताजे कुटज फूलों की अंजलि देकर संतोष करना पड़ा। उसे चंपक, बकुत, नीलोत्पल, मल्लिका, अरविंद के फूल नहीं मिले, मिले तो केवल कुटज के फूल। इस प्रकार वे गाढ़े समय में उनके काम आए। वैसे यक्ष तो बहाना है, कालिदास ही कभी रामगिरि पहुँचे थे और अपने हाथों इस कुटज पुष्प का अर्ध्य देकर मेघ की अभ्यर्थना की थी। इस प्रकार कुटज गाढ़े का साथी बना।
“कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए एक संदेशा पाया है।” -इस कथन की पुष्टि करते हुए बताइए कि वह संदेश क्या है ?
कुटज हिमालय की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला जंगली फूल है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए संदेश पाया है। कुटज में अपराजेय जीवन शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव् से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। इसी प्रकार हमें भी अपनी जिजीविषा बनाए रखनी चाहिए और सभी स्थितियों को सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए।
कुटज का संक्षिप्त परिचय देते हुए उसके संदेश को अपने शब्दों में लिखिए।
कुटज हिमालय पर्वत की शिवालिक पहाड़ियों की सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली वृक्ष है। इसमें सुंदर फूल लगते हैं। कुटज एक ठिगने कद का वृक्ष होता है जिसके फूलों में न तो कोई विशेष सौंदर्य होता है और न सुगंध। फिर भी लेखक को कुटज में मानव के लिए एक संदेश की प्रतीति होती है। कुटज में अपराजेय जीवन-शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी ज्ञान के साथ जीने की क्षमता है। वह सभी परिस्थितियों को समान भाव से स्वीकार करता है। वह सूखी पर्वत शृंखला के पत्थरों से भी अपना भोग्य वसूल लेता है। इस पाठ से यही संदेश मिलता है कि हमें भी सभी प्रकार की परिस्थितियों में सहर्ष जीने की कला आनी चाहिए।
कुटज से किन जीवन-मूल्यों की सीख मिलती है?
कुटज से हमें निम्नलिखित जीवन-मूल्यों की सीख मिलती है-
हर परिस्थिति में पूरी मस्ती के साथ जिओ।
अपना प्राप्य अवश्य वसूल करो।
सदैव अपना आत्मसम्मान बनाए रखो।
परोपकार के लिए जिओ।
किसी की चापलूसी मत करो।
अपने मन पर नियंत्रण रखे।
ईर्ष्या-द्वेष भावना से ऊपर उठो।
सदैव प्रसन्नचित्त बने रहो।
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