NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antara , entitled "Dusra Devdas," is going to get students involved in discussing this powerful and evocative story critically. This chapter is a revisit to the traditional tale of Devdas with an altogether new perspective-a peep into the variations of human emotions and societal norms. The solutions direct the student through the flow of the text and the development of characters, guiding him into the realization of the interplay of the story with the mainstream of current society. The Class 12 Hindi Antra Chapter 16 pdf has detailed explanations of key passages, which makes it possible for students to have a comprehensive look at "Dusra Devdas."
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पाठ के आधार पर हर की पौड़ी पर होने वाली गंगाजी की आरती का भावपूर्ण वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
हर की पौड़ी पर संध्या के समय जो गंगाजी की आरती होती है, उसका एक अलग ही रंग होता है। संध्या के समय गंगा-घाट पर भारी भीड़ एकत्रित हो जाती है। भक्त फूलों के एक रुपए वाले दोने दो रुपए में खरीदकर भी खुश होते हैं। गंगा-सभा के स्वयंसेवक खाकी वर्दी में मुस्तैदी से व्यवस्था देखते घूमते रहते हैं। भक्तगण सीढ़ियों पर शांत भाव से बैठते हैं। आरती शुरू होने का समय होते ही चारों ओर हलचल मच जाती है। लोग अपने मनोरथ सिद्धि के लिए स्पेशल आरती करवाते हैं। पाँच मंजिली पीतल की नीलांजलि (आरती का पात्र) में हजारों बत्तियाँ जल उठती हैं। औरतें गंगा में डुबकी लगाकर गीले वस्त्रों में ही आरती में शामिल होती हैं। स्त्री-पुरुषों के माथे पर पंडे-पुजारी तिलक लगाते हैं। पंडित हाथ में अंगोछा लपेट कर नीलांजलि को पकड़कर आरती उतारते हैं। लोग अपनी मनौतियों के दिए लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों में तैराते हैं। गंगापुत्र इन दोनों में से पैसे उठा लेते हैं। पुजारी समवेत स्वर में आरती गाते हैं। उनके स्वर में लता मंगेशकर का मधुर स्वर मिलकर ‘ओम जय ज्गदीश हरे’ की आरती से सारे वातावरण को गुंजायमान कर देता है।
‘गंगापुत्र के लिए गंगा मैया ही जीविका और जीवन है’-इसं कथन के आधार पर गंगा पुत्रों के जीवन-परिवेश की चर्चा कीजिए।
गंगा पुत्र वे हैं जो गंगा में गोता लगाकर लोगों द्वारा तैराए गए फूलों के दोने में रखे पैसों के उठाकर अपने मुँह में दबा लेते हैं। जैसे ही कोई भक्त दोना पानी में सरकाता है, वैसे ही गंगापुत्र उस पर लपकते हैं। वे दोने से पैसे उठा लेते हैं। यदि कभी दीपक की आग उनके लंगोट में लग जाती है तो वे झट से गंगाजी में बैठ जाते हैं। गंगा मैया ही उनकी जीविका और जीवन है। वे यहाँ से मिले पैसों से अपनी जीविका चलाते हैं। वे बीस-बीस चक्कर लगाते हैं और रेजगारी बटोरते हैं। गंगापुत्र की बीवी और बहन कुशाघाट पर रेजगारी बेचकर नोट कमाती हैं। वे एक रुपए के बदले 80-85 पैसे देती हैं। हम कह सकते हैं कि इन गंगा-पुत्रों का जीवन कष्टपूर्ण परिस्थितियों में बीतता होगा। इस काम से उन्हें सीमित ही आमदनी होती होगी। वे सामान्य परिवेश में अपना गुजर-बसर करते होंगे।
पुजारी ने लड़की के ‘हम’ को युगल अर्थ में लेकर क्या आशीर्वाद दिया और पुजारी द्वारा आशीर्वाद देने के बाद लड़के और लड़की के व्यग्रहार में अटपटापन क्यों आ ग्या ?
जब लड़की हर की पौड़ी पर पहुँची तब आरती हो चुकी थी। पंडित ने तो अपने लालच में वहीं आरती कराने को कहा पर लड़की ने इंकार केरते हुए कहा- ‘हम कल आरती की बेला में आएँगे।’ उस समय एक लड़का संभव भी उसके पास खड़ा था, अतः पुजारी ने उन्हें पति-पत्नी समझ लिय!। उसने ‘हम’ को युगल के अर्थ में लिया और आशीर्वाद देते हुए कहा- “सुखी रहो, फूलो-फलो, जब भी आओ साथ ही आना, गंगा मैया मनोरथ पूरे करें।” पुज़ारी का ऐसा आशीर्वाद सुनकर लड़के-लड़की के व्यवहार में कुछ अटपटापन आ गया। दोनों को लगा कि यह गलतफहमी के कारण ही हुआ है। उन्होंने मुँह से तो कुछ नहीं कहा पर लगता था कि लड़का (संभव) कहना चाहता था- इसमें मेरी कोई गलती नहीं थी। पुजारी ने गलत अर्थ ले लिया।” लड़की भी कहना चाहती थी-“आपको इतना पास नहीं खड़ा होना चाहिए था।” दोनों एक-दूसरे से नजरें बचाने लगे।
उस छोटी-सी मुलाकात ने संभव के मन में क्या हलचल उत्पन्न कर दी? इसका सूक्ष्म विवेचन कीजिए।
पारों के साथ हुई उस छोटी सी मुलाकात ने संभव के मन को झिंझोड़ डाला।
संभव का मन बेचैन हो गया। उसने उसे देखने के लिए अनेक गलियों में चक्कर लगाए पर सफलता न मिली।
संभव को रात को भी ठीक से नींद नहीं आई।
अगले दिन वह शाम होने की प्रतीक्षा करता रहा क्योंकि वह शाम की आरती में शामिल होने की बात कहकर गई थी।
संभव की आँखों में उस लड़को की छवि पूरी तरह से बस गई थी। वह उसी की एक झलक देखना चाह रहा था।
वह मन ही मन यह सोच रहा था कि यदि वह मिल गई तो उससे क्या-क्या प्रश्न करेगा।
मंसा देवी जाने के लिए केबिल कार में बैठे हुए संभव के मन में जो कल्पनाएँ उठ रही थीं, उनका वर्णन कीजिए।
मंसा देवी जाने के लिए संभव एक गुलाबी केबिल कार में बैठ गया। जब उसने उस लड़की को गुलाबी वस्त्रों में देखा था तब से गुलाबी के सिवाय कोई और रंग अच्छा ही नहीं लग रहा था। उसके मन में उस लड़की के दिखाई देने की कल्पनाएँ उठ रही थीं। यद्यपि संभव पूजा-पाठ में विश्वास नहीं करता था, पर अब उसका मन इसमें इसलिए लग रहा था ताकि किसी प्रकार उसकी भेंट अपने मन में बसी लड़की के साथ हो जाए। इसीलिए उसने मंसादेवी के मंदिर में चढ़ावे के लिए एक थैली भी खरीदी। उसने लाल-पीले धागे भी खरीदे। संभव ने भी पूरी श्रद्धा के साथ गाँठ लगाई, फिर सिर झुकाया, नैवेद्य चढ़ाया। जब उसने पीली केबिल कार में उस लड़की को बैठे देखा तब वह बेचैन हो गया। उसका मन हुआ कि वह पंछी की तरह उड़कर पीली केबिल कार में पहुँच जाए।
“पारो बुआ, पारो बुआ इनका नाम है” ‘उसे भी मनोकामना का पीला-लाल धागा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्परण हो आया।” कथन के आधार पर कहानी के संकेत पूर्ण आशय पर टिप्पणी लिखिए।
जब लड़के ने अपनी बुआ का नाम ‘पारो’ बताया तब संभव को लगा कि उसकी मनोकामना का पीला-लाल धागा बाँधना सार्थक हो गया। उसने इसी लड़की को देखने-मिलने की मनोकामना को लेकर गिठान लगाई थी। पारो को देखकर उसे गिठान का मधुर स्मरण हो आया। वह स्वयं को देवदास समझने लगा। उसे लगने लगा कि अब पारो उसकी हो जाएगी। कहानी का संकेत यही कहता है।
‘मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत अनूठी है, इधर बाँधो उधर लग जाती है।’ कथन के आधार पर पारो की मनोदशा का वर्णन दीजिए।
लड़की मंसा देवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प लेती है अर्थात् वह भी मन-ही-मन संभव से प्रेम कर बैठती है। उसके मन में भी प्रेम का स्फुरण होने लगता है। इस कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि पारो के मन में भी संभव के प्रति प्रेम का अंकुर फूट पड़ता है। उसका लाज से गुलाबी होते हुए मंसादेवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प उसकी इसी प्रेमातुर मनोदशा का सूचक है। वह प्रश्नवाचक नजरों से संभव की ओर देखती भी है। वह संभव का नाम भी जानना चाहती है। पारो को लगता है कि यह गाँठ कितनी अनूठी है, कितनी अद्भुत है, कितनी आश्चर्यजनक है। अभी बाँधी, अभी फल की प्राप्ति हो गई। देवी माँ ने उसकी मनोकामना शीय्र पूरी कर दी।
निम्नलिखित वाक्यों का आशय स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘तुझे तो तैरना भी न आवे। कहीं पैर फिसल जाता तो मैं तेरी माँ को कौन मुँह दिखाती।’
(ख) ‘उसके चेहरे पर इतना विभोर विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम् त्याग दिया है, उसके अंदर स्व से जनित कोई-कुंठा शेष नहीं है, वह शुद्ध रूप से चेतन स्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंद है।’
(ग) ‘एकदम अंदर के प्रकोष्ठ में चामुंडा रूप धारिणी मंसादेवी स्थापित थी। व्यापार यहाँ भी था।
(क) यह कथन संभव की नानी का है। संभव गंगा तट से बहुत देर से लौटा तो नानी को चिंता सवार हो गई। अगर संभव का पैर फिसल जाता और वह गंगा में डूब जाता तो नानी उसकी माँ अर्थात् अपनी बेटी को कैसे मुँह दिखा पाती। (यहाँ निहितार्थ है-प्रेम में कच्चा, प्रेम-सागर में फिसलना)
(ख) संभव ने देखा कि गंगा की जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे को देखकर लगता था कि उसने सारे अहम् भाव को त्याग दिया है। वह भाव-विभोर था और विनीत भाव से पूजा-अर्चना कर रहा था। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि उसके मन में स्व (Igo) से उत्पन्न कोई कुंठा नहीं रह गई है। वह साक्षात् परमात्मा का रूप दिखाई दे रहा था। उसमें बस चेतना, आत्मा है जो अत्यंत निर्मल है। वह ‘स्व’ से ऊपर उठ चुका था और परमात्मा में लीन हो चुका था।
(ग) मंसा देवी के मंदिर में जाकर संभव ने देखा कि एक कमरे में चामुंडा रूप धारण किए मंसादेवी की मूर्ति स्थापित थीं। उसके सामने भी व्यापारिक गतिविधियाँ जारी थीं। वहाँ लाल-पीले धागे बिक रहे थे, रुद्राक्ष बिक रहे थे। अर्थात् मंदिर में भी व्यापार चल रहा था। सर्वत्र व्यापार का बोलबाला है।
‘दूसरा देवदास’ कहानी के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
इस कहानी का शीर्षक ‘दूसरा देवदास’ पूरी तरह से सार्थक है। पहला देवदास भी अपनी पारो के प्रति इतना ही आसक्त था जितना यह दूसरा देवदास (संभव) था। इस दूसरे देवदास के मन में भी अपनी इस पारो (यह नाम अंत में पता चलता है) को देखने, मिलने की उत्तनी ही ललक थी। उसका अपना परिचय देते हुए स्वयं को ‘संभव देवदास’ बताना भी इसी ओर संकेत करता है। दोनों के हृदयों में अनजाने ही प्रेम का स्फुरण हो जाना शीर्षक को रूमानियत और सार्थकता दे जाता है। यह शीर्षक प्रतीकात्मक भी है क्योंकि देवदास उसे कहा जाता है जो अपनी प्रेमिका के प्यार में पागलपन की स्थिति तक पहुँच जाए। संभव की भी यही दशा होती है।
‘हे ईश्वर! उसने कब सोचा था कि मनोकामना का मौन उद्गार इतनी शीघ्र शुभ परिणाम दिखाएगा।’
जब संभव ने अपनी मनचाही लड़की को अगले दिन ही अपने सामने देख लिया तो उसके मुँह से उपर्युक्त वाक्य निकला। उसने ईश्वर के समक्ष ऐसी कामना तो अवश्य की थी, पर वह यह नहीं जानता था कि उसकी मनोकामना इतनी जल्दी पूरी हो जाएगी। उसकी मनोकामना मौन अवश्य थी पर उसका सुखद परिणाम शीघ्र निकल आया। उम्मीद से बढ़कर प्राप्ति हुई थी।
इस पाठ का शिल्प आख्याता (नैरेटर-लेखक) की ओर से लिखते हुए बना है-पाठ से कुछ उदाहरण देकर सिद्ध कीजिए।
आख्याता हर की पौड़ी का स्वयं वर्णन करता है। कुछ उदाहरण :
औरतें डुबकी लगा रही थीं। बस उन्होंने तट पर लगे कुंडों से बँधी जंजीर पकड़ रखी है।
संभव का ध्यान कलावे की ओर नहीं था। वह गंगाजी की छटा को निहार रहा था।
संभव आगे बढ़कर कहना चाहता था, ‘देखिए इसमें मेरी कोई गलती नहीं थी ‘।’
पाठ में आए पूजा-अर्चना के शब्दों तथा इनसे संबंधित वाक्यों को छाँटकर लिखिए।
पूजा-अर्चना के शब्द तथा संबंधित वाक्य :
आरती : पंडितगण आरती के इंतजाम में व्यस्त हैं।
कलावा : लाल रंग का कलावा बाँधने के लिए हाथ बढ़ाया।
पीतल की नीलांजलि : पीतल की नीलांजलि में सहस्र बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं।
स्नान : हमें स्नान करके पूजा करनी चाहिए।
आराध्य : जो भी आपका आराध्य हो चुन लें।
चंदन का तिलक : हर एक के पास चंदन और सिंदूर की कटोरी है।
दीप : पानी पर दीपकों की प्रतिछवियाँ झिलमिला रही है।
चढ़ावा : एक वृद्ध चढ़ावे की छोटी थैली लिए बैठे थे। गाँठ : संभव ने पूरी श्रद्धा के साथ मनोकामना की गाँठ लगाई।
गंगा नदी पर एक निबंध लिखिए।
गंगा –
हमारे देश को बनाने में प्रकृति की दो अद्भुत चीज़ों का बहुत बड़ा हाथ है। वे हैं हिमालय और गंगा। तुम जानते हो कि यदि हमारे देश के उत्तर में हिमालय न होता तो मानसून से होनेवाली वर्षा का पानी हमें न मिलता। साथ ही उत्तर के पठार से आने वाली ठंडी हवाएँ हमारे देश के मैदान को बंजर-सा बना देती। इस तरह हिमालय हमारे देश का संरक्षक है। वह पानीभरी मानसूनी हवाओं को इधर ही रोक लेता है और बर्फ़ली ठंडी हवाओं को उस पार से ही लौटा देता है।
पर केवल इतने से ही हमारे देश का बड़ा मैदान उपजाऊ और निवास-योग्य नहीं बन गया। हिमालय की चोटियों पर बर्फ़ के रूप में जमे पानी को नीचे मैदान तक उतारकर भी तो लाना था ताकि वह यहाँ के निवासियों को जीवन दे सके। यह काम गंगा नदी ने किया। गंगा एक प्रकार से भारसीय सभ्यता का आधार रही, है। इसी में बहकर आई हुई, उपजाऊ मिट्दी से वह विस्तृत मैदान बना है जिसमें प्राचीन आर्य-सभ्यता का उदय और विकास हुआ। इसी के किनारे हमारे देश के इतिहास की सबसे प्रमुख घटनाएँ घटी हैं।
कहा जाता है कि अपने साठ हजार पूर्वजों को तारने के लिए भगीरथ बड़ी तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर उतार कर लाए थे। लगता है भगीरथ एक महान इंजीनियर थे जो पहाड़ों को काट-काटकर तथा अन्य कई धाराओं को गंगा के साथ मिलाकर इसे मैदान की ओर लाए होंगे। इस कथा से भगीरथ के अथक परिश्रम का पता लगता है। इसी कारण आज भी कठोर परिश्रम को भगीरथ-प्रयत्न कहते हैं।
गंगा का उद्गम गंगोत्री से उनतीस किलोमीटर ऊपर गोमुख नामक स्थान पर है। गंगोत्री केदारनाथ से लगभग चालीस किलोमीटर आगे है और लगभग पाँच हज़ार मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ बर्फ़ीले पहाड़ों की श्वेत, स्वच्छ बर्फ़ ही पिघल-पिघलकर नन्हीं-सी नदी के रूप में नीचे की ओर बहना आरंभ करती है। यहाँ इसे भगीरथी कहते हैं। पर्वत की घाटियों के बीच भागीरथी कूदती-फाँदती, अठखेलियाँ करती, चट्टानों से टकराती, प्रपात बनाती हुई अदम्य बेग और उत्साह से आगे बढ़ती है। हरे-भरे पर्वतों के बीच भागीरथी पिघली हुई चाँ की बहती धारा-सी प्रतीत होती है। देवप्रयाग में यह अपनी सहेली अलकनंदा को अपने साथ ले लेती है। यहीं से इसका नाम गंगा पड़ता है और इसी नाम से यह यह बंगाल तक पुकारी जाती है।
हिमालय की पर्वत-श्रेणियों के बीच लगभग 175 किलोमीटर की दूरी पारकर गंगा ऋषिकेश पहुँचती है। यहाँ बहुत-से आश्रम बने हुए हैं जहाँ धार्मिक लोग रहकर स्वाध्याय और तपस्या करते हैं। ऋषिकेश से तीस किलोमीटर नीचे हरिद्वार बहुत बड़ा तीर्थ स्थान है। हर बारहवें वर्ष यहाँ कुंभ का मेला लगता है। यहाँ का प्राकृतिक दृश्य बहुत सुदर तथा वातावरण बहुत शांत है। हरिद्वार में बहुत-से मंदिर और धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। प्रतिवर्ष लाखों यात्री विभिन्न पर्वों पर गंगास्नान करने हरिद्वार आते हैं।
हरिद्वार में ही गंगा से प्रसिद्ध गंग नहर निकाली गई है जो लगभग 18 लाख एकड़ भूमि की सिचाई करती और अपने किनारे के प्रदेशों को धन-धान्य, से भरती हुई कानपुर तक जाकर फिर गंगा में मिल जाती है। इस नहर से बिजली भी बनाई जाती है। गंगा तो निरंतर बहती रहती है। इतिहास या भूगोल की किसी घटना से बँधकर यह रुक नही जाती। बहना ही इसका जीवन है।
हस्तिनापुर के आगे गंगा पहले दक्षिण और फिर दक्षिण-पूर्व दिशा में बहती हुई भारत के प्रसिद्ध औद्योगिक नगर कानपुर पहुँचती है। यहाँ कपड़े और चमड़े के बड़े-बड़े कारखाने हैं। इन सभी कारखानों के लिए पानी गंगा से ही आता है। यदि नदियाँ न हों तो हमारे अधिकाँश उद्योग-धंधे ठप हो जाएँ। यही कारण है संसार के लगभग सभी बड़े-बड़े औद्योगिक नगर किसी न किसी नदी या समुद्र के किनारे बसे हैं। कानपुर से लगभग 200 किलोमीटर आगे प्रयाग है जो तीर्थराज माना जाता है। प्रयाग को ही आजकल इलाहाबाद कहते हैं। यहाँ गंगा और यमुना नदी का संगम होता है। प्रत्येक बारहवें वर्ष यहाँ भी कुंभ का प्रसिद्ध मेला लगता है।
प्रयाग के आगे पूरब की ओर बहती हुई गंगा वाराणसी पहुँचती है जहाँ विश्वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। गंगा यहाँ अर्द्धचंद्राकर रूप में बहती है। इसके किनारे-किनारे यहाँ अनेक घाट बने हुए हैं जिनमें से कई बहुत प्राचीन हैं। शाम के समय शंख और घंटे की ध्वनि के साथ जब आरती होती है तब यहाँ का दृश्य बहुत अच्छा लगता है। बहुत से लोग इन घाटों की शोभा देखने के लिए ही नावों में बैठकर नदी में सैर करते हैं। वाराणसी से कुछ आगे गंगा बिहार में प्रवेश करती है। हिमालय से निकली हुई घाघरा, गंडक और कोशी नदियाँ यहाँ बाई ओर से आकर इसमें मिलती हैं। मध्य पठारों की लाल भूमि से निकली सोन नदी पटना के निकट आकर गंगा में अपना लाल जल मिलाती है।
इन सभी नदियों का पानी लेकर गंगा का आकार बहुत विशल हो जाता है। पर गंगा का हृदय भी तो कितना विशाल है !. यह अपने पास आनेवाली सभी नदियों का पानी अपने में मिलाकर अपने जल से एकाकार करती जाती है। गंगा किसी में भेदभाव नहीं करती। यह सभी को समान भाव से अपने साथ ले जाना चाहती है। सूरदास ने ठीक ही कहा था :
इक नदिया इक नार कहावत मैलो ही नीर भरो।
जब दोनों मिलि एक बरन भए सुरसरि नाम परो।
पटना के बाद भागलपुर होती हुई गंगा बिहार राज्य में पूर्वी सीमा पर राजमहल की पहाड़ियों से टकराती हुई बंगाल में प्रवेश करती है। यहाँ धुलियान से आगे गंगा की दो धाराएँ हो जाती हैं। इनमें से एक धारा बांग्ला देश में चली जाती है। और पदा नाम ग्रहण करती है। दूसरी धारा हुगली के नाम से कलकत्ता की ओर जाती है। कलकत्ता भारत का प्रसिद्ध व्यापारिक नगर और बंदरगाह है। समुद्र के किनारे पहुँचने के कारण गंगा की चाल बहुत मंथर हो जाती है। लगता है गंगा जैसे अपने गंतव्य पर पहुँचकर शांति प्राप्त कर रही हो।
अपने लक्ष्य को प्राप्तकर किसे प्रसन्नता नहीं होती ! गंगा की इतनी लंबी यात्रा मानो समुद्र से मिलने के लिए ही थी। यह अपने डेल्टा की अनेक धाराओं से समुद्र का आलिंगन कर उसके साथ एकाकार हो जाती है। आनंद के उस असीम सागर में मिलकर गंगा अपने स्वरूप को बिलकुल ही बिसरा देती है।
पर कब तक ? फिर समुद्र का पानी भाप बनकर उड़ता है और मानसून के साथ जाकर हिमालय की चोटियों पर जम जाता है। फिर श्वेत, स्वच्छ बर्फ़ पिघलती है और गंगा एक बार फिर अपनी लंबी यात्रा उसी प्रसन्नता और उसी उत्साह से आरंभ करती है ताकि यह एक बार फिर हम भारतवासियों का उपकार करने का अवसर पा सके।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ कहानी पढ़िए और उस पर बनी फिल्म देखिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।
हरिद्वार और उसके आस-पास के स्थानों की जानकारी प्राप्त कीजिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।
आपके नगर/गाँव में नदी-तालाब-मंदिर के आस-पास जो कर्मकांड होते हैं उनका रेखाचित्र के रूप में लेखन कीजिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।
आरती के समय के दृश्य का वर्णन पाठ के आधार पर कीजिए।
आरती से पहले औरतें गंगा में नहाती हैं। औरतें ज्यादातर नहाकर वस्त्र नहीं बदलतीं। गीले कपड़ों में ही खड़ी-खड़ी आरती में शामिल हो जाती हैं। पीतल की पंचमंजिली नीलांजलि गरम हो उठी है। पुजारी नीलांजलि को गंगाजल स्पर्श कर, हाथ में लिपटे अँगोछे को नामालूम ढंग से गीला कर लेते हैं। दूसरे यह दृश्य देखने पर मालूम होता है वे अपना संबोधन गंगाजी के गर्भ तक पहुँचा रहे हैं। पानी पर सहस्र बाती वाले दीपकों की प्रतिच्छवियाँ झिलमिला रही हैं।
पूरे वातावरण में अगरु-चंदन की दिव्य सुगंध है। आरती के बाद बारी है संकल्प और मंत्रोच्चार की। भक्त आरती लेते हैं. चढ़ावा चढ़ाते हैं। स्पेशल भक्तों से पुजारी ब्राह्मा-भोज, दान, मिष्ठान की धनराशि कबुलवाते हैं। आरती के क्षण इतने भव्य और दिव्य रहे हैं कि भक्त हुज्जत नहीं करते। खुशी-खुशी दक्षिणा देते हैं। पंडित जी प्रसन्न होकर भगवान के गले से माला उतार-उतार कर यजमान के गले में डालते हैं। फिर जी खोल कर देते हैं प्रसाद, इतना कि अपना हिस्सा खाकर भी ढेर सा बचा रहता है बाँटने के लिए-मुरमुरे, इलायचीदाना, केले और पुष्प।
संभव मंसा देवी के लिए टिकट लेकर कहाँ पहुँच गया ? संभव को किस बात के लिए अफसोस हुआ ?
संभव जल्द ही उस विशाल परिसर में पहुँच गया जहाँ लाल, पीली, नीली, गुलाबी केबिल कार बारी-बारी से आकर रुकतीं, चार यात्री बैठातीं और रवाना हो जातीं। केबिल कार का द्वार खोलने और बंद करने की चाभी ऑपरेटर के नियंत्रण में थी। संभव एक गुलाबी केबिल कार में बैठ गया। कल से उसे गुलाबी के सिवा और कोई रंग सुहा ही नहीं रहा था। उसके सामने की सीट पर एक नवविवाहित दंपति चढ़ावे की बड़ी थैली और एक वृद्ध चढ़ावे की छोटी थैली लिए बैठे थे। संभव को अफसोस हुआ कि वह चढ़ावा खरीद कर नहीं लाया। इस वक्त जहाँ से केबिल कार गुजर रही थी, नीचे कतारबद्ध फूल खिले हुए थे। रंग-बिरंगी वादियों से कोई हिंडोला उड़ा जा रहा है।
केबिल कार में बैठकर संभव को क्या दृश्य दिखायी दिया ?
संभव का मन एक बार चारों ओर के विहंगम दृश्य में रम गया तो न मोटे-मोटे फौलाद के खंभे नजर आए और न भारी केबिल वाली रोपवे। पूरा हरिद्वार सामने खुला था। जगह-जगह मंदिरों के बुर्ज, गंगा मैया की धवल धार और सड़कों के खूबसूरत घुमाव। नीचे सड़क के रास्ते चढ़ते, हाँफते लोग। लिमका की दुकानें और नाम अनाम पेड़।
जब नानी घर का द्वार उढ़का कर गंगा-स्नान के लिए चली गई तब संभव के मन में सपने में क्या-क्या विचार आने लगे ?
नानी द्वार उढ़का कर चली गईं, तो संभव ने अपनी कल्पना को निर्द्वंद छोड़ दिया। आज जब वह सलोनी उसे दिखेगी तो वह उसके पास जाकर कहेगा, ‘पुजारी जी की नादानी का मुझे बेहद अफसोस है। यकीन मानिए, पंडित जी मेरे लिए भी उतने ही अनजान हैं जितने आपके लिए।’
लड़की कहेगी ‘कोई बात नहीं।’
वह पूछेगा, ‘आप दिल्ली से आई हैं ?’
लड़की कहेगी ‘नहीं हम तो ‘के हैं।’
बस उसके हाथ पते की बात लग जाएगी। अगर उसने रुख दिखाया तो वह कहेगा, ‘मेरा नाम संभव है और आपका ?’
वह क्या कहेगी ? उसका नाम क्या होगा। वह बी. ए, में पढ़ रही होगी या एम. ए. में ? इन सवालों के जवाब वह अभी ढूँढ भी नहीं पाया था कि नानी वापस आ गई और बोलीं-
‘ले तू अभी तक सुपने ले रहा है, वहाँ लाखन लाख लोग नहान कर लिए। अरे कभी तो बड़ों का कहा कर लो।’ लड़के की तंद्रा नष्ट हो गई। नानी उवाच के बीच सपने नौ दो ग्यारह हो गए।
संभव किस बात में यकीन नहीं करता था ? नानी के यहाँ आकर उसने नानी को क्या-क्या काम करते देखा ?
संभव बहुत शारीरिक मेहनत में यकीन नहीं करता था। बरसों से कुसी पर बैठ पढ़ते-पढ़ते उसे सक्रियता के नाम पर हमेशा किसी दिमागी हरकत का ही ध्यान आता था। उसे यहाँ सुबह-सुबह नानी का झाड़ लगाना, चक्की चलाना, पानी भरना, रात के माँजे बर्तन फिर से धो-धोकर लगाना, सब कष्ट दे रहा था। वह ऐतराज नहीं कर रहा था तो सिर्फ इसलिए कि महज चार दिन रुक कर वह नानी की दिनचर्या में हस्तक्षेप करने का अधिकरी नहीं बन सकता।
आरती का समय होते ही क्या दृश्य उपस्थित हो जाता है ?
आरती का समय होते ही गंगा-तट पर यकायक सहस्र दीप जल उठते हैं पंडित अपने आसन से उठ खड़े होते हैं। हाथ में अँगोछा लपेट के पंचमंजिला नीलांजलि पकड़ते हैं और शुरू हो जाती है आरती। पहले पुजारियों के भर्राए गले से समवेत स्वर उठता है जय गंगे माता जो कोई तुझको ध्याता, सारे सुख पाता; जय गंगेमाता। घंटे घड़ियाल बजते हैं। मनौतियों के दिये लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किशितयाँ गंगा की लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती हैं।
गोताखोर दोने पकड़, उनमें रखा चढ़ावे का पैसा उठाकर मुँह में दबा लेते हैं। एक औरत ने इक्कीस दोने तैराएँ हैं। गंगापुत्र जैसे ही एक दोने से पैसा उठाता है, औरत अगला दोना सरका देती है। गंगापुत्र उस पर लपकता है कि पहले दोने की दीपक से उसके लँगोट में आग की लपट लग जाती है। पास खड़े लोग हँसने लगते हैं पर गंगापुत्र हतप्रभ नहीं होता।
आरती से पहले के स्नान के बारे में पाठ के आधार पर बताइए।
आरती से पहले स्नान होता है। औरतें डुबकी लगा रही होती हैं। बस उन्होंने तट पर लगे कुंडों से बँधी जंजीरें पकड़ रखी हैं। पास ही कोई-न-कोई पंडा जजमानों के कपड़ों-लत्तों की सुरक्षा कर रहा है। हर एक के पास चंदन और सिंदूर की कटोरी है। मर्दों के माथे पर चंदन तिलक और औरतों के माथे पर सिंदूर का टीका लगा देते हैं पंडे। कहीं कोई दादी-बाबा पहला पोता होने की खुशी में आरती करवा रहे हैं, कहीं कोई नई बहू आने की खुशी में। अभी पूरा अँधेरा नहीं घिरा है। गोधूलि बेला है।
‘दूसरा देवदास’ कहानी का कथ्य क्या है ?
‘दूसरा देवदास’ कहानी में हर की पौड़ी, हरिद्वार के परिवेश को केंद्र में रखकर युवा मन की संवेदना, भावना और विचारों की उथल-पुथल को आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया गया है। यह कहानी युवा-हुदय में पहली आकस्मिक मुलाकात की हलचल, कल्पना और रूमानियत का उदाहरण है। लेखिका ने घटनाओं का संयोजन इस प्रकार किया है कि अनजाने में प्रेम का प्रथम अंकुर संभव और पारो के हूदय में बड़ी अजीब परिस्थितियों में उत्पन्न होता है। यह प्रथम आकर्षण और परिस्थितियों के गुंफन ही उनके प्रेम का आधार है और यही उसे मज़बूती प्रदान करता है। इससे सिद्ध होता है कि प्रेम के लिए किसी निश्चित व्यक्ति, समय और स्थिति का होना आवश्यक नहीं है। वह कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय और स्थिति में उपज सकता है। इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने प्रेम को पवित्र और स्थायी स्वरूप प्रदान किया है।
संभव ने लड़की को किस रूप में देखा ? वह कैसी लग रही थी ?
लड़की अब बिल्कुल संभव के बराबर में खड़ी, आँख मूँद कर अर्चन कर रही थी। संभव ने यकायक मुड़कर उसकी ओर गौर किया। उसके कपड़े एकदम भीगे हुए थे यहाँ तक कि उसके गुलाबी आँचल के कुर्त का एक कोना भी गीला हो रहा था। लड़की के लंबे गीले बाल पीठ पर काले चमकीले शॉल की तरह लग रहे थे। दीपकों के नीम उजाले में, आकाश और जल की साँवली संधि-बेला में, लड़की बेहद सौम्य, लगभग कास्य प्रतिमा लग रही थी।
संभव हरिद्वार क्यों आया था ?
संभव की ज्यादा उम्र नहीं थी। इसी साल एम. ए. पूरा किया था। अब वह सिविल सर्विसेज प्रतियोगिताओं में बैठने वाला था। माता-पिता का ख्याल था वह हरिद्वार जाकर गंगा जी के दर्शन कर ले तो बेखटके सिविल सेवा में चुन लिया जाएगा। लड़का इन टोटकों को नहीं मानता था पर घूमना और नानी से मिलना उसे पसंद था इसीलिए वह हरिद्वार आया था।
‘उसे भी मनोकामना का पीला-लाल धागा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्मरण हो आया। ‘दूसरा देवदास’ कहानी के आधार पर उपर्युक्त कथन पर टिप्पणी कीजिए।
‘दूसरा देवदास’ कहानी में जब लड़के ने अपनी बुआ का नाम ‘पारो’ बताया तब संभव को लगा कि उसकी मनोकामना का पीला-लाल धागा बाँधना सार्थक हो गया। उसने इसी लड़की को देखने-मिलनें की मनोकामना को लेकर गिठान लगाई थी। पारो को देखकर उसे गिठान का मधुर स्मरण हो आया। वह स्वयं को देवदास समझने लगा। उसे लगने लगा कि अब पारो उसकी हो जाएगी। कहानी का संकेत यही कहता है।
‘दूसरा देवदास’ कहानी के माध्यम से लेखिका ने प्रेम को बंबइया फिल्मों की परिपाटी से अलग हटाकर उसे पवित्र और स्थायी स्वरूप प्रदान किया है।”-इस कथन के समर्थन में तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
‘दूसरा देवदास’ कहानी को लेखिका ने बंबइया प्रभाव से सर्वथा मुक्त रखा है। संभव और पारो का प्रेम पवित्र एवं स्थायी है। इसमें वासना की गंध नहीं है। उनमें हददय की गहरी अनुभूतियाँ हैं। वे एक दूसरे को हृदय से चाहते हैं, पर आपने प्रेम का बंबइया फिल्मों की तरह छिछोरा प्रदर्शन नहीं करते। लेखिका ने उनके प्रेम को पवित्र एवं स्थायी स्वरूप प्रदान किया है।
‘दूसरा देवदास’ कहानी में आपकी सहानुभूति पारो और देवदास में से किस पात्र के साथ अधिक है और क्यों ? उस पात्र की मनोदशा का चित्रण कीजिए।
‘दूसरा देवदास’ कहानी में हमारी सहानुभूति देवदास अर्थात् संभव के साथ है। पारो को देखने के बाद उसकी मनःस्थिति विचित्र सी हो गई थी। पारो के साथ हुई उस छोटी सी मुलाकात ने संभव के मन को झिंझोड़ डाला।
संभव का मन बेचैन हो गया। उसने उसे देखने के लिए अनेक गलियों में चक्कर लगाए पर सफलता न मिली।
संभव को रात को भी ठीक से नींद नहीं आई।
अगले दिन वह शाम होने की प्रतीक्षा करता रहा क्योंकि वह शाम की आरती में शामिल होने की बात कहकर गई थी।
संभव की आँखों में उस लड़की की छवि पूरी तरह से बस गई थी। वह उसी की एक झलक देखना चाह रहा था।
वह मन ही मन यह सोच रहा था कि यदि वह मिल गई तो उससे क्या-क्या प्रश्न करेगा।
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